चाह

सदियों के इस शोर में तन्हाई ढूंढ रही हूँ,
क्यों आज पछुआ में मैं पुरवाई ढूंढ रही हूँ

इच्छा का समंदर इतना बड़ा है, उसमे दो घूंट समाई ढूंढ रही हूँ,
इस अपार कोलाहल में गूंजती शहनाई ढूंढ रही हूँ

रूदन भरी सुबह में भोर की सुरमई झंकार ढूंढ रही हूँ,
इन रूखे से स्वरों में मैं अलंकार ढूंढ रही हूँ


तारीख: 23.06.2017                                    खुशबू जैन









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