गदर आन्दोलन का इतिहास : आजादी या मौत

Azadi ya maut book review हम इतिहास के ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ इतिहास को खासकर भारतीय इतिहास को बदलने की नाकाम कोशिश की जा रही है. भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन और उससे जुड़े तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है. इतिहास के ऐसे कठिन दौर में भारतीय इतिहास को समृद्ध करती वेद प्रकाश ‘वटुक’ द्वारा लिखित पुस्तक ‘आजादी या मौत’ गदर आन्दोलन की एक ऐसी दास्तान है जो अभी अकथ रही है.

वेद प्रकाश ‘वटुक’ की यह पुस्तक संस्मरणात्मक रूप से अपनी बात कहती है कि 1848 से लेकर 1910 तक भारत के लोग अमरीका, कनाडा, इंग्लैण्ड में जहाँ एक तरफ उच्च शिक्षा प्राप्त करने गए वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग अपनी गरीबी मिटाने गए थे-“भारतीय छात्र ब्रिटेन ही जाते थे क्योंकि वह शिक्षा उन्हें ऊँचे सरकारी पदों के लिए तैयार करने के लिए सहायक होती थी...” इसी शिक्षा का परिणाम था कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में कालान्तर में भाग लेने वाले नेताओं का भी निर्माण हुआ. गाँधी, नेहरू, जिन्ना आदि उसी शिक्षा की उपज थे. छात्रों का एक वर्ग ऐसा भी था जो भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे जिनमें तारकनाथ दास, सुधीन्द्र बोस, प्रफुल्ल मुखर्जी आदि प्रमुख थे.

दूसरी तरफ वे भारतीय लोग भी आये जो अपनी गरीबी का दुर्भाग्य मिटाना चाहते थे. उन्हें तो जो भी काम जहाँ भी मिलता, जितनी भी पगार पर मिलता कर लेते. साथ ही उन देशों के नस्लभेदी, द्वेषी विशाल समाज के कोप से अपना अस्तित्व बचाना भी एक चुनौती थी. और इन मुश्किलों के बावजूद वे स्त्रीविहीन, परिवार विहीन एकांकी पुरुष एक दूसरे का सहारा बनकर जीने को विवश थे.

विदेशों में भारतीय नागरिक घृणा, उत्पीड़न और शोषण का शिकार हो रहे थे. उसी दौरान सोहन सिंह भकना और उसके दोस्त काम ढूंढने गए थे. जब वे अमरीका के सुपरिटेंडेंट से मिले तो उनका जवाब सुनकर शर्म से गर्दन झुकाकर वापस चले आये. “काम तो है पर तुम्हारे लिए नहीं... मेरा दिल तो करता है तुम दोनों को गोली मार दूँ. ...तुम्हारे देश की कितनी आबादी है? ये तीस करोड़ आदमी हैं या भेड़ें? जो तुम तीस करोड़ आदमी होते तो गुलाम क्यों होते? गुलाम क्यों रहते... मैं तुम दोनों को एक-एक बन्दूक देता हूँ. जाओ पहले अपने देश को आजाद कराओ. जब आजाद कराके अमरीका आओगे तो मैं तुम्हारा स्वागत करूँगा.”

जब भारतीय लोगों के लिए अमरीका, कनाडा इत्यादि देशों के दरवाजे बंद होने लगे तो भारतीय अप्रावासियों की त्रासदी निरंतर बढ़ने लगी. तमाम विरोध प्रदर्शन, सभाओं एवं लिखित प्रेस विज्ञप्ति के बाद भी भारतीयों के समर्थन में कोई भी व्यक्ति सामने नहीं आया. “धीरे-धीरे भारतीयों की समझ में यह आने लगा कि ब्रिटेन साम्राज्य की रक्षा/सेवा में चाहे वे अपना तन-मन-धन सबकुछ न्यौछावर कर दें, तो भी किसी भी गोरों के उपनिवेश में आदर नहीं पा सकते. इसी चिन्तन ने ब्रिटिश सरकार परस्त लोगों के मन में राष्ट्रीयता और एकता की भावना को जन्म दिया. विदेशी धरती पर 1909 में ‘हिन्दुस्तान एसोसिएशन की स्थापना हुई. बदलती परिस्थितियों में यह संस्था भारतीयों के हित की रक्षा के लिए कटिबद्ध थी.”

1913 तक आते-आते गदर पार्टी की नींव रख दी जाती है इसने पूर्ण स्वराज के नारे को कांग्रेस से भी पहले अपना लिया था. ‘गदर’ का यह नारा बहुत प्रचलित था- “जब तक भारत पूर्णरूप से राजनीतिक ही नहीं सामाजिक और आर्थिक आजादी भी प्राप्त नहीं कर लेता, हमारी जंग जारी रहेगी.”

‘गदर’ की लोकप्रियता इतनी तेजी से बढ़ी कि इस अखबार को ‘गदर पार्टी’ के नाम से जाना जाने लगा. गदर पार्टी के सदस्यों ने जिस आजाद भारत का सपना देखा था. उसको व्यावहारिक रूप से जीने की कोशिश करने लगे- “धार्मिक अभिवादनों का स्थान ‘वंदेमातरम्’ ने ले लिया. जूते और धर्म दरवाजे से बाहर रखकर वे वहाँ शुद्ध भारतीय होकर जीते, साथ पकाते, साथ घर की देखभाल करते और साथ मिलकर ‘गदर’ निकलते.”

गदर पार्टी की सक्रियता ने अमरीका, कनाडा और ब्रिटेन की सरकार को हिलाकर रख दिया. परिणामस्वरूप उन्होंने भेदियों को ‘गदर’ नेताओं के पीछे लगा दिया. लेकिन गदर ने धीरे-धीरे अपनी पहचान आम लोगों में बनानी शुरू कर दी थी. 25 मार्च 1914 को दिए गए हरदयाल के भाषण ने पूरी सभा को इतना प्रभावित एवं उत्तेजित किया कि लोग देश की आजादी के लिए स्वदेश लौटने की तयारी करने लगे. उन्होंने अपने भाषण में कहा था- “वह दिन दूर नहीं जब मजदूर जागेंगे, किसान जागेंगे, शोषित कुचले हुए लोग जागेंगे, बराबरी का हक़ मागेंगे, इन्सान की तरह जीने का अधिकार मांगेंगे. उसके लिए प्राणों का उत्सर्ग करेंगे- उनकी ताकत के आगे न अन्याय टिकेगा न झूट भरा जालिम राज.”

4 अगस्त 1941 को ब्रिटेन द्वारा जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा होते ही ‘गदर’ सदस्यों ने घोषणा कर दी कि अब वक्त आ गया है भारत की गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करने का समय आ गया है. गदर पार्टी के नेताओं के संदेशों में अपील जारी की जाने लगी कि भारत में जाकर जनता में क्रांति का सन्देश फैलाये. मौलाना बरकत उल्लाह भोपाली ने अपने सन्देश में कहा “भाइयों, आप लोग दुनिया के बेहतरीन मुजाहिदीन हैं. धर्म की आड़ में दूसरे मजहबों के बेबस लोगों को मारने वाले नहीं, शैतानी राज को जड़ से उखाड़ने वाले मुजाहिदीन, हर लाचार की पांव की बेड़ियां काटने वाले मुजाहिदीन, गुलामी की जंजीरों के टुकड़े-टुकड़े कर फेंकने वाले, जालिम को मिटाने वाले मुजाहिदीन. पर याद रखो, आजादी गोरों की जगह काले साहबों को बिठा देना नहीं.” देखते ही देखते 60 से 80 प्रतिशत अप्रवासी भारतीय बलिदान होने के लिए भारत लौट आये. यह विश्व इतिहास की सबसे अभूतपूर्व घटना इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो गयी.

रास बिहारी के गदर पार्टी में शामिल होते ही ‘गदर’ साहित्य जनता के विभिन्न तबकों तक पहुंचने लगा. उसने सैनिकों के लिए गदर साहित्य पहुंचाना शुरू कर दिया ताकि एक दिन सैनिक विद्रोह किया जा सके. इसी दौरान राष्ट्रीय ध्वज का निर्माण भी कर लिया गया था. ऐसा लग रहा था कि क्रांति का सपना साकार होने वाला है लेकिन अचानक ही पार्टी के एक सदस्य ने विश्वासघात करके बहुत से साथियों को पकड़वा दिया.

देश विदेश में गदरी नेताओं पर ‘वैधानिक सरकार को पलटने’ के षड्यंत्र में सामूहिक मुकदमा चलाया गया. मुकदमे के दौरान गदरियों ने बार बार कहा “बंद करो यह ड्रामा, दे दो हमें फांसी.” फैसले के दिन जब सभी को मृत्युदंड मिला और उनके साथी ज्वाला सिंह को आजीवन कारावास तो वो चीख पड़ा “जब मेरे साथियों को मौत की सजा मिली है, तो मुझे उम्रकैद क्यों?” ऐसे थे आजादी के दीवाने जिन्होंने फाँसी के तख्ते को हँसते गाते चूम लिया. कोठरी में करतार सिंह के द्वारा कोयले से लिखे गए वे शब्द आज भी सच्ची आजादी की उम्मीद बनाये रखते हैं-“शहीदों का खून कभी खाली नहीं जाता. आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसो जरूर ही बाहर जाकर रंग लायेगा.”

गदर आन्दोलन के विफल होने के बाद जो भी गदरी बचे थे उन्होंने अपनी नाकामयाबी से सबक लिया और आत्मकेन्द्रित योजना न बनाकर जनकेन्द्रित योजनाओं पर अमल करना शुरू कर दिया. इस तरह उन्होंने नये सिरे से जन आन्दोलन को विकसित करना शुरू किया जिसमे सोहन सिंह भकना किसान आन्दोलन के मेरुदंड बनकर उभरे.

देश तो आजाद हो गया लेकिन सोहन सिंह भकना ने आजाद भारत की सरकार के बर्ताव पर रोस जताया- “मुझे इस बात का फख्र है कि कौम की दुश्मन अंग्रेज सरकार मेरी कमर न झुका सकी, जो अभी झुकी है तो उन्हीं मित्रों की सरकार के कारण जिनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़कर हमने आजादी की लड़ाई लड़ी थी.”

यह पुस्तक पाठकों की इतिहासबोध चेतना को उन्नत करने में सहायता करती है क्योंकि समाज के इतिहास में प्रत्येक व्यक्ति का अपना इतिहास और योगदान होता है. गदर आन्दोलन के इतिहास की रौशनी में हम भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन को भी आसानी से समझ सकते हैं.

आजादी या मौत : वेद प्रकाश वटुक | गार्गी प्रकाशन | कीमत 130 रुपये | पेज 192


तारीख: 08.06.2017                                    आरिफा एविस









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