कल्लूमामा जिन्दाबाद

Kallu mama jindabadसोशल मीडिया पर एक चरित्र “कल्लू मामा” रोज आता है बिंदास किसी की परवाह किये बिना लिखता है तब मैंने इस कल्लू मामा को समझने की कोशिश की ....हालाँकि मैंने आज तक इनको न देखा है न सुना बस फेसबुक पर ही पढ़ा है.....तब मैंने व्यंग्यकार सुभास चंदर का व्यंग्य संग्रह ‘कल्लू मामा जिंदाबाद’ पढ़ने का मन बनाया.

संग्रह की भाषा ग्रामीण बोलचाल की भाषा है जिसमें गावों के पात्र संवाद करते हैं. संवादों का तीखापन ग्रामीण-व्यवहार और ग्रामीण-जीवन पर यह संग्रह बहुत ही आसान भाषा में गंभीर विषयों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करता नजर आता है.

किस्सागोई अंदाज में बहुत ही सहज तरीके से कठिन से कठिन विषय पर कलम चलाई गई है. पहला ही व्यंग्य ‘एक भूत की असली कहानी’ वर्तमान समाज की सामाजित, राजनीतिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य है कि किस तरह से एक व्यक्ति को बहुत ही आसान तरीके से जिन्दा रहने के बावजूद मृत समझा जाता है जो आज के समय की कथा सी लगती है. यह व्यंग्य कहानी कहीं-कहीं फ़िल्मी कहानियों की याद भी दिलाता है- “देख हम जिन्दा हैं. हम बोल रहे हैं, चल रहे हैं. जिन्दा न होते तो चलते-फिरते, देखो भूत कहीं बीड़ी पी सके है. वो तो आग से डर के भागे है.” “...पगला कहीं का, हम तेरा विश्वास क्यों करें. हम सरकारी नौकर तेरा विश्वास करेंगे कि सरकारी कागज का. भाग यहाँ से स्साला मरने के बाद रिपोर्ट लिखाने आया है.”

इस संग्रह का एक व्यंग धर्मांतरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर लिखा गया है -‘कबूतर की घर वापसी’ के जरिये उन्होंने व्यक्ति की कमजोर सामाजिक, आर्थिक स्थिति का फायदा उठाने वालों का धर्म परिवर्तन कर उसकी स्थिति बेहतर बनाने के धंधे को उजागर करने के साथ ही साथ उन्होंने हिन्दू, मुस्लिम, इसाइयों में धर्म परिवर्तन के बाद की स्थिति का भी यथार्थवादी चित्रण करते हुए इस बात को प्रमाणित किया है कि धर्म बदलने से व्यक्ति के रहन सहन में कमोबेश तो सुधार तो होता है. पर समाज में उसे हीन दृष्टि से ही देखा जाता है.

एक धर्म दूसरे धर्म की निंदा करके सामने वाले की आर्थिक, सामाजिक स्थिति का फायदा उठाकर उसे अपने धर्म में शामिल करने की पुरजोर कोशिश करते हैं. और अगर कोई इन सबका खंडन करता है तो उसे खत्म करने पर उतारू हो जाते हैं. “देख भाई, परेशान मत हो. मेरी मान तो तू अपना मजहब बेच दे. अच्छे से दाना-पानी का जुगाड़ हो जायेगा. तेरे दिन तो क्या रातें भी सुधर जायंगी.” कबूतर ने सोचा भूखो मरने से बेहतर है कि मजहब बेच देते हैं. मजहब ससुर क्या खाने को देता है, पीने को देता है.” धर्म बदलने के बाद भी बाकी धर्मों में उसकी सामाजिक स्थिति नहीं सुधरी तो घर वापसी की ठान लेने पर अपनी बिरादरी वाले कबूतरों ने उसका खूब स्वागत किया. तिलकधारी कबूतर बोला, “पगले तू अशुद्ध हो गया है. म्लेच्छो और क्रिस्तानों ने तुझे अशुद्ध कर दिया था. हम तुझको शुद्ध कर रहे हैं. शुद्धि के बाद ही तो तू महान हिन्दू धर्म में वापस आ जायगा. प्रभु की कृपा मान कि तू लौट आया वरना तुझे नर्क में भी जगह न मिलती.”

इश्क और मुश्क कौन नहीं करना चाहता, लेकिन जब इश्क के नाम पर लोग धोखा दे और पैसा ऐंठे तो लोग इश्क करने से भी डरते हैं. ‘कल्लू मामा जिन्दा बाद’ व्यंग्य ऐसा ही व्यंग्य जिसमें सोशल मीडिया के जरिये होने वाले फर्जी प्रेम पर कटाक्ष है.

बाकी व्यंग भी पठनीय हैं जिनसे एक पाठक अपने को आसानी से जोड़ सकता है. इस संग्रह की सफलता इसी में मानी जा सकती है कि व्यंग को समझने में ज्यादा कठिनाई नहीं आती और हमारे समय में रोज घटने वाली घटनाओं को ही व्यंग का आधार बनाया गया है जिसके कारण कल्लू मामा आज बहुत अधिक चर्चित पात्र बनने दिशा में बढ़ सकता है. ग्रामीण भाषा से पाठक यदि अच्छी तरह परिचित है तो यह संग्रह उसे गुदगुदाता भी है

कल्लूमामा जिंदाबाद की कीमत 250 जरुर अधिक लग सकती है जो पाठक को व्यंग से दूर करने में अपनी भूमिका पूरी तरह निभा रही है.

कल्लूमामा जिन्दाबाद : सुभास चंदर | प्रकाशक : भावना प्रकाशन | कीमत : 250


तारीख: 08.06.2017                                    आरिफा एविस









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