​​​​​​​पं. दीनदयाल उपाध्याय

Pandit Dindayal Upadhyayपं. दीनदयाल उपाध्याय डायमंड बुक्स ने अपनी प्रकाशन यात्रा में सैकड़ों देशभक्तों, क्रांतिकारियों एवं प्रसिद्ध हस्तियों की जीवनियाँ पाठकों के सामने प्रस्तुत की हैं. उसी श्रृंखला के अंतर्गत इस बार पं. दीनदयाल उपाध्याय के जीवन पर लेखक हरीश दत्त शर्मा ने रौशनी डाली है.

उनके बारे में लेखक हरीश दत्त शर्मा लिखते हैं कि पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे महान व्यक्तित्व की जितनी प्रशंसा की जाए कम है. वे एक महान देशभक्त, कुशल संगठनकर्ता, प्रखर विचारक, दूरदर्शी, राजनीतिज्ञ और प्रबुद्ध साहित्यकार थे. वे सादा जीवन उच्च विचार की जीती जागती प्रतिमा थे.

लेखक ने पं. दीनदयाल उपाध्याय की जीवन यात्रा का तथ्यात्मक वर्णन प्रस्तुत करते हुए उल्लेख किया है कि उपाध्याय जी ने 1947 से 1949 तक विभिन्न लेखों व पुस्तकों का प्रकाशन ही नहीं किया बल्कि दर्जनों लेखकों को समाज में स्थापित करने का कार्य भी बड़ी शिद्दत के साथ किया.

जब पं. दीनदयाल उपाध्याय जी की जिम्मेदारियां बढ़ती गयीं तो उनको पढ़ने-लिखने का समय भी कम मिलता था और उन्हें देशभर में यात्राएँ करनी पड़ती थी. उन यात्राओं में उन्होंने पढ़ने-लिखने का समय निकाला. उनके बारे में लेखक ने लिखा कि “पं. दीनदयाल उपाध्याय जी पढ़ने-लिखने के लिए शौचालय एवं रेल के सफर में समय निकालते थे. जब वे शौच जाते थे तो उन्हें अधिक समय लगता था. इसीलिए वे शौच के समय अपना समय अध्ययन में लगाते थे.”

पं. दीनदयाल उपाध्याय शिक्षा, ज्ञान एवं चिन्तन प्रक्रिया को बहुत ही महत्वपूर्ण मानते थे. इसीलिए स्वाध्याय से प्राप्त ज्ञान को उन्होंने उपयुक्त एवं स्थायी माना है- “स्वाध्याय के लिए आवश्यक है कि आपके पास ज्ञान प्राप्ति के लिए पुस्तकें आदि हों. अतः व्यक्ति के चतुर्विध पुरुषार्थों के लिए प्रयास की शक्ति तभी प्राप्त कर सकता है. जब शिक्षा द्वारा सामाजिक उद्देश्य को बढ़ावा दिए जाने का प्रयास हो.”

सादा जीवन, उच्च विचार और व्यवहार के मूर्तिमान पं. दीनदयाल उपाध्याय की असामयिक मृत्यु ने भारतीय राजनीति, प्रशासन एवं रेल व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया क्योंकि “पं. दीनदयाल उपाध्याय का शव इस प्रकार पाया गया जैसे वे लावारिस हों.” तमाम राजनीतिक मतभेद होने के बाद भी देश के सभी राजनीतिक दलों एवं नेताओं ने पं. दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु पर गहरा शोक जाहिर किया जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने कहा था कि “मुझे श्री उपाध्याय की मृत्यु की खबर सुनकर गहरा आघात पहुँचा है. श्री उपाध्याय देश के राजनीतिक जीवन में प्रमुख भूमिका अदा कर रहे थे. उनकी ऐसी दुखद परिस्थितियों में असामयिक और अप्रत्याशित मृत्यु से उनका कार्य अधूरा रह गया है. जनसंघ और कांग्रेस के बीच मतभेद चाहे जो हों, मगर श्री उपाध्याय सर्वाधिक सम्मान प्राप्त नेता थे और उन्होंने अपना जीवन देश की एकता एवं संस्कृति को समर्पित कर दिया था.”

आज भारतीय संसदीय नेता गैर संसदीय भाषा का प्रयोग करते हैं जिससे देश में अराजकता का माहौल पैदा हो जाता है. यहाँ तक कि सामाजिक सद्भाव बिगड़ जाते हैं. भाषणों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि “ देखिए, ऐसा लगता है कि मेरा प्रभाव नहीं पड़ेगा तो मैं चुनाव से हट जाता हूँ लेकिन केवल मतों के लिए मैं अपने भाषणों में आवश्यक तीखापन नहीं ला सकूँगा. विरोधियों की व्यक्तिगत आलोचना करना तो मैं अनैतिक ही मानता हूँ.”

पं. दीनदयाल उपाध्याय एक प्रकृति प्रेमी भी थे. इसीलिए प्रकृति के अत्यधिक दोहन से वे बहुत चिंतित थे. “हम यदि सारी शक्ति एवं उपलब्ध साधन-सम्पदा को निरंकुशता से खर्च करने लगे तो यह कदापि उचित नहीं होगा. हमारी व्यवस्था प्रकृति का शोषण करने वाली न होकर उसके पोषण के लिए सहायक बनने वाली होनी चाहिए.”

इस वर्ष पं. दीनदयाल उपाध्याय का जन्मशताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है. आज देश में सद्भावना, सहिष्णुता, सहयोग जैसी भावना का लोप हो रहा है तो ऐसे कठिन समय में उनके ये विचार हमारे देश के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं-“ संघर्ष की भूमिका से स्वेच्छापूर्वक एवं चिरस्थायी सहयोग की सम्भावना कभी निर्मित नहीं की जा सकती. यह संसार संघर्ष के नहीं सहयोग के आधार पर ही टिका है. हम विकासवादी हैं तो सृष्टि के इस नियम को हमें स्वीकार करना होगा.”

पं. दीनदयाल उपाध्याय ने अपने लेखों के माध्यम से सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक समस्याओं पर ही अपने विचार प्रस्तुत नहीं किये बल्कि विदेशी पूँजी और विदेशी निवेश के विरोध में अनेक तर्क भी प्रस्तुत किए- “विदेशी पूँजी के साथ हमें विवश होकर विदेशों की उत्पादन प्रणाली भी स्वीकार करनी पड़ती है. ...इस प्रकार की उत्पादन प्रणाली हमारे देश पर लादी गयी तो उससे जीविका निर्माण कम होगा. ...परिणामतः भारत के आर्थिक हित सम्बन्धों का रक्षण होना तो दूर, उलटे हमारा नियमित रूप से शोषण हो रहा है. इन पाश्चात्य हित सम्बन्धियों ने भारत का आर्थिक शोषण करते समय अपने साथ भारत के कुछ वर्गों को पश्चात्य अर्थव्यवस्थाओं के प्रतिनिथि के रूप में सम्मिलित कर लिया है और कुछ मात्रा में उन्हें भागीदार भी बनाया है. हमारे देश के आर्थिक विकास पर इस वर्ग का बहुत ही प्रभुत्व रहा है.”

लेखक हरीश दत्त शर्मा की यह पुस्तक पं. दीनदयाल उपाध्याय के जीवन के उन सभी पहलुओं से अवगत कराती है जिनके बारे में उन्होंने चिन्तन ही नहीं किया, बल्कि जीवनभर उन पर चलकर भी दिखाया है. पुस्तक में उनके सहयात्रियों के आलेख भी दिए गए हैं. जिस कारण पं. दीनदयाल उपाध्याय के चिन्तन, सिद्धांत और व्यवहार को और अधिक गहनता के साथ समझा जा सकता है.

पं. दीनदयाल उपाध्याय : हरीश दत्त शर्मा | प्रकाशन : डायमंड बुक्स | कीमत : 95 | पेज :160


तारीख: 08.06.2017                                    एम.एम.चन्द्रा









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