मिठाई के डिब्बे की कहानी उसी की जबानी

त्योहारों का मौसम है, हर जगह हर्ष, उल्लास, हर जगह बस मिठाई ही मिठाई, नुक्कड़ से लेकर मॉल तक, महल से लेकर चाल तक। बच्चे, बूढ़े और जवान सब मस्त हैं। मैं भी एक आलीशान वातानुकूलित दूकान मेँ सैकड़ों साथियों के साथ विराजमान हूँ। 

मेरी पैकिंग एक कमसिन ने बहुत प्यार से की थी। उसने पहले एक सुनहरी परत मुझ पे चढ़ाई। उसपर मटमैले रंग के मोतियों की एक लड़ी, कही- कही कपडे के बने गुलाबी फूलों से मेरी शोभा बढ़ाई। मेरी चार कतारों मेँ काजू कतली, गुलाब जामुन, मोतीचूर के लडू और मावा बर्फी सजाई। मैं बिखरु नहीं सो एक लाल रेशमी डोर से मुझ पर गांठ लगायी। 

मैंने खुद को शृंगार किये हुए पिया मिलन की आस लिए किसी शर्माती दुल्हन सा घबराता पाया। एक ककर्श आवाज ने मेरी निद्रा भंग की। एक मोटी तोंद वाला सेठ कह रहा था " यह सुनहरी ५१ डिब्बे भेज दो ऑफिस मेँ।" 

ऑफिस मेँ हम सब को बाँट दिया गया। सब ने एक दूजे को अलविदा कहा। सब को पता था आखिरी सलाम है। और मैं चल दिया अपने स्वामी के साथ कुछ इतराता हुआ। घर पहुँचते ही आव देख न ताव बच्चों मेँ महाभारत शुरू हो गया। मेरी लाल डोर को जिस बेरहमी से खोला, जो छीना झपटी शुरू की, दुशासन और द्रोपदी की याद दिला दी। शुक्र है कृष्ण रूपी माँ ने आकर मेरी लाज बची। सब को काजू कतली चाहिए थी। सो वह उसी क्षण बच्चे चट कर गए। अब मैं उनमे से किसी को आकर्षित नहीं कर रहा था।मेरी बाकी मिठाई उनके किसी काम की नहीं थी। मैं भी दो चार और उदास डिब्बों के साथ एक कोने मेँ रख दिया गया। 

शाम को हमारी सुध ली गयी, काम वाली बाई के आगे हमें ले जाने का प्रस्ताव रखा गया ,जिसका उसने उसी क्षण जोरदार खंडन किया और सिर्फ मेवे ही ले गयी। सो हम फिर वही कोने मेँ त्रिस्कृत पड़े रहे। वातानुकूलित वातावरण के प्राणी ठहरे हम, न पूछो कितना संघर्ष किया अपनी मिठाई को बचाने मेँ। रात को चूहों ने कुतरा, तो कभी कॉकरोच ने चुटकी ली,कभी मछर महोदय ने सपरिवार हम पर बैठ अपने घरेलु झगड़ों का समाधान किया हम एक पल भी न विश्राम किये।रात पलकों ही मेँ कट गयी।

बस किसी तरह सुबह हुई, मालकिन ने एक बढ़िया सी साड़ी पहनी। हाथ मेँ कंगन, कान मेँ बाली।सेंडल ऊँची हील वाली। बढ़िया सुगंध लगायी। फिर उस कोमलांगी, सुघड़ ग्रहणी ने हम सब को टेबल पर रखा। बहुत उलट पलट कर देखा। मेरे खाली कोने को एक बहुत ही बेकार मिठाई से भरा। रेशम की डोर कस कर बाँधी जैसे कभी खुली ही नहीं थी। मुझे मोटर मेँ रख कर अपनी एक सहेली को दे आई। वहां तो नजारा अलग ही था।सोचा था कुछ सम्मान मिलेगा पर वहां जाते ही मेँ " इन्फेरोरिटी काम्प्लेक्स" का शिकार हो गया। सब डिब्बे मुझे से उम्दा चमकीले और बड़े थे।

आखिर एक रात पूरा सोने को मिला। फ्रिज मेँ रखा गया था मुझको।भोर होते ही चाय के साथ मुझे आलिशान मोटर के ड्रिवेरों को सोप दिया गया। कुछ ही मिनटों मेँ मैं बिलकुल खाली था। एक आलीशान कार के पहिये निचे कुचला हुआ। लाल डोर किसी ड्राइवर ने अपने हाथ पे बांध ली थी।मोती इधर उधर बिखरे थे, तो गुलाबी फूल कीचड़ मेँ पड़े मेरी और दुखी दृष्टि से देख रहे थे।महादेवी वर्मा की "मुरझ्या फूल" की याद ताज़ा हो गयी। दाता अगले जनम मोहे मिठाई का डिब्बा न कीजे।
 


तारीख: 10.06.2017                                    रेखा राज सिंह









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