आज मानव जब भी किसी कष्ट में होता है तो सोचता है कि यदि भगवान धरती पर फिर से आ जाएँ तो सारे पाप ख़त्म हो जाएँ। किंतु क्या अकेले भगवान इन पापों से लड़ने में सक्षम हैं? ये नाटक २००८ में एक अंतर-विश्वविद्यालय प्रतियोगिता के लिए लिखा गया था। नाटक के सभी संवाद कविता के रूप में हैं। इस नाटक में हमने आधुनिक सामाजिक पृष्ठभूमि पर रामायण काल के पात्रों का आरोप किया है। अतैव इस नाटक के पात्रों के नाम वास्तविक नाम न होकर प्रतीकों के नाम पर रखे गए हैं
पात्र:
वृद्ध : जीवन के ६० वसंत देख चुके, यथार्थवादी
वृद्धा : अति आशावादी, भगवान में अटूट आस्था
सीता : क़रीब २८ साल की एक स्त्री। समाज में प्रताड़ित उपेक्षित वर्ग की प्रतीक
राम : समाज के ऐसे वर्ग का प्रतीक जो अन्याय से यथसंभव लड़ता है
जनता : ऐसे लोगों का प्रतीक जो अन्याय से लड़ने में अक्षम है
रावण: अन्यायी लोगों का प्रतीक
दृश्य १
नेपथ्य से :
हिमगिरी का सुंदर आँगन जब वन सा बीहड़ बन जाएगा
जब पवित्रता पर गंगा की कोई नाहक प्रश्न उठाएगा
जब भीषण तम से लड़-लड़कर ख़ुद दिनकर भी थक जाएगा
और भ्रष्ट राहू के पाशों में शशि बँधा स्वयं को पाएगा
तब घिरा अतीत के यादों में और छला भविष्य के वादों से
बार बार बस प्रश्न यही ये वर्तमान दोहराएगा
ये रामराज्य कब आएगा, ये रामराज्य कब आएगा
वृद्धा ( अख़बार के पन्ने पलटते हुए)
देखिए रण सा प्रतीत अब हो रहा संसार है
इस भयानक रोग का मिलता ना एक उपचार है
वृद्ध: ( चाय की प्याली रखते हुए)
क्या उपचार यह रोग असाध्य एक ऐसा राहू आया है
जिसने चिर अवधि के लिए सूरज को आहार बनाया है
देखो रक्षक की आज स्वयं हुई भक्षक जैसी गति है
मैं कहता हूँ इस कुत्सित भू की नाश ही एक अंतिम गति है
वृद्धा:
क्या भूल गए वह प्रण प्रभु का जब वह सुंदर पल आया था
संकट में धरा त्राण करने का प्रण उसने दोहराया था
वही प्रण राम, कृष्ण की भाँति उसे कल्कि रूप में लाएगा
राम राज्य फिर आएगा, राम राज्य फिर आएगा
वृद्ध:
मन के बालक को समझाने का ये सोच तो एक बहाना है
हम क्यों ऐसे सपने देखें साकार ना जिसको होना है
फिर भी यदि राम कृष्ण की भाँति वो कल्कि रूप में आएगा
वह भी पापों के इस सागर को पार नहीं कर पाएगा
राम-राज्य नहीं आएगा, राम-राज्य नहीं आएगा
दृश्य २
नेपथ्य से:
लंका में समृद्धि की सीता बंदी है
भ्रष्टाचार समुद्र बीच में भरे हुए
लिए अहिंसा की माला कर में अपने
राह माँगते राम किनारे खड़े हुए
त्रिजटा के सपनो जैसा राष्ट्रीयकरण
सीता को कोरे आश्वासन पिला रहा
समाजवादी सेतु आज तक बँधा नहीं
भ्रष्ट समुद्र नींव के पत्थर हिला रहा
नल-नीलों से क्या उम्मीद करें
जिनकी निष्ठाएँ बदनाम कमीशन खाने में
अभी बहुत देर है रामराज्य के आने में
अभी बहुत देर है रामराज्य के आने में
(सीता बैठी रो रही है, अचानक रावण को देखकर सामने खड़े पुरुष से सहायता माँगती है)
तो चलो भविष्य के आँगन में हम लिए आपको चलते हैं
बांधे जिनसे उम्मीद सभी वो राम स्वयं क्या करते हैं
सीता:
त्राहिमाम हे तात रक्षा मेरी कीजिए
है आज भी रक्षक नारी के सिद्ध इसको कीजिए
जनता :
हे निर्लज! कौन है तू? किसलिए यहाँ तू आया है?
मानवता की हत्या को पापों का ख़ंजर लाया है
रावण:
मैं वो विशाल पर्वत हूँ जिससे टकराते यदि बादल हैं
तो वो भी मुझसे हो परास्त खो जाते बनकर जल-कण हैं
हट जा मेरे मार्ग से तू, तब अभयदान तू पाएगा
यदि नहीं, तो मेरी एक फूँक से पत्तों सा उड़ जाएगा
जनता:
क्षमा करे हे मालिक मुझको क्यों अपने प्राण गवाऊँ मैं
अपने जीवन की क़ीमत पर क्यों पर की लाज बचाऊँ मैं
(मौक़ा पाकर सीता कुएँ के पीछे छिप जाती है)
रावण:
कब तक भागेगी तू मुझसे कब तक निज ख़ैर मनाएगी
मैं तुझे ढूँढ ही लूँगा एक दिन, अब चैन कहाँ तू पाएगी
(रावण चला जाता है)
सीता:
क्या जाने ये क़िस्मत मेरी ये पूर्व जनम का पाप है
अब तो लगता मुझको ये जीवन भी अभिशाप है
इस अभिशापित जीवन को कष्टों से दूर करूँगी मैं
है नहीं तनिक भी मोह मुझे अब ख़ुद के प्राण हरूँगी मैं
(सीता कुएँ की ओर बढ़ती है)
राम:
ठहरो ! कौन हो तुम किस कारण से इतने अश्रु बहाती हो
इस गहरे कुएँ में कूद क्यों अपनी जान गँवाती हो
इस तरह से आँसुओं के मौन में मत गुम रहो
है तेरे हृदय की वेदना क्या, क्या दर्द है? देवी कहो
सीता:
देवी नहीं मैं बस अबला हूँ, तिरस्कार की मारी हूँ
हर युग में है जो छली गयी, मैं वही आभागिन नारी हूँ
अपनी अस्मत की रक्षा को में रोज़ भागती फिरती हूँ
इतनी बेबस लाचार हुई कि ख़ुद के साये से डरती हूँ
हैं नहीं यहाँ पर कोई भी जो मुझको शरणागत कर ले
सब डरते हैं उस पापी से, है वीर कहाँ जो लोहा ले
राम: (जनता की ओर देखते हुए)
अरे मेष की भाँति सिंह से शिशु छीन सकता है कौन
सिंहों सा अधिकार जताओ, मत रह जाओ निरीह मौन
जनता:
सिंहों की उपमा क्यों देते, हम तो निर्बल लाचार भले
क़िस्मत से टकराते कैसे? सो क़िस्मत के साथ चले
राम:
क्यों दोषी ठहराते विधि को, पूछो तुम अपने ही मन से
यदि ग़लती उसकी है कुछ भी अपराधी तो तुम भी शोषण के
जनता:
हम शोषित वर्ग के हैं प्रतीक, हम अंधकार में रहते हैं
हम पूजा करते हैं जिनकी, अन्याय उसी का सहते हैं
वैकुण्ठ धाम में बैठे वो, करुणानिधान कहलाते हैं
हम दीनों की रक्षा को ख़ुद राम क्यों नहीं आते हैं
(इतने में रावण आ जाता है)
रावण:
मेरे अधरों के संचालन से जिनके प्राण कहीं उड़ जाते हैं
रक्षा देंगे वो क्या तुझको, जो ख़ुद शोषित कहलाते हैं
सूखी नदियों के तट पर जो निज प्यास बुझाने जाते हैं
तेरे जैसे ही हो परास्त निज भाग्य पर पछताते हैं
(ये कहते हुए रावण सीता को पकड़ लेता है)
राम:
रुक ! ऐ अधर्म के हस्ताक्षर ये कैसा ज़ुल्म तू ढाता है
निज बल का करके दुरुपयोग, इसे लिए कहाँ को जाता है
छोड़ दे अब तू दामन इसका, वरना तेरे प्राण हारूँगा मैं
है सत्य सदा ही राम यहाँ ये फिर से सिद्ध करूँगा मैं
नेपथ्य से:
यूँ राम के सुनकर वचन रावण तनिक नहीं घबराया है
त्रेता के सम्मुख कलि ने देखो ये कैसा उद्घोष सुनाया है
रावण:
अंधेरे के दीपक जो जग के उद्धारक कहलाये हैं
तेरे जैसे कितने राम हमने दंगों में जलवाए हैं
मान लिया कि मुझे मार इस अबला का त्रास हारेगा तू
अब हर नुक्कड़ पर रावण बैठा, किस किस का नास करेगा तू?
नेपथ्य से:
टूटी थी सबकी आशाएँ राम विवश था खड़ा रहा
इस ओर मनुज के सूखे चेहरे, उस ओर समय था रुका रहा
राम:
किसके किसके आँसू पोछेगा राम यहाँ
गली गली घूमती शबरियाँ भिखमंगी हैं
गौतम से अभिशप्त, सुरों से छली गयी
हर कोठे पर हो रही अहिल्या नंगी है
कैसे ये संसार सवारूँ, कैसे ये अहिपाश छुड़ाऊँ
हर रावण का नाश करूँ मैं,हर सीता की लाज बचाऊँ
सुख समृद्धि की सुरभि को फिर से जग के कण कण में बिखराऊँ
जो कलि को फिर से त्रेता कर दे, इतने राम कहाँ से लाऊँ
(राम निराश हो बैठ जाता है)
नेपथ्य से :
तो चलो भविष्य से लौट चले हम, यहाँ तो धोखा खाया है
देखें जीवट वर्तमान ने ख़ुद को कैसे समझाया है
दृश्य ३
वृद्धा:
लो अस्त हुआ सूरज अब तो रजनी ने चादर डाली है
हर तरफ़ विवशता हावी है, तूणीर राम का ख़ाली है
है नहीं यहाँ पर कोई भी दुखियों के कष्ट हरेगा जो
लेकर न्याय की किरण हाथ में अंधियारा दूर करेगा जो
वृद्ध: ( अचानक से एक दिए और फिर सूर्य की तरफ़ देखते हुए)
दुःख की रजनी छँट जाएगी सुख का तब काल बड़ा होगा
जब लिए धनुष निज हाथों में हर घर में राम खड़ा होगा
आज मैंने सूर्य को बस ज़रा सा ये कहा
आपके साम्राज्य में इतना अंधेरा क्यों रहा
प्रश्न सुनकर वो दहाड़ा मैं अकेला क्या करूँ
तुम निकम्मों के लिए, मैं भला कब तक लड़ूँ
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पड़ो
संग्राम ये घनघोर है, कुछ मैं लड़ूँ कुछ तुम लड़ों
संग्राम ये घनघोर है, कुछ मैं लड़ूँ कुछ तुम लड़ों
(पटाक्षेप)
लेखक:
आदित्य नारायण मिश्र
कुणाल झा
(अन्य कवियों यथा बालकवि वैरागी आदि की कविताओं का प्रयोग भी जगह जगह किया गया है)