एक ताला है,
ज़ंग लगा, भारी,
मेरे सामने पड़ा,
बरसों से।
कहते हैं,
इसके पीछे,
ख़ज़ाना है,
खुशियों का, सपनों का,
मुक्ति का।
मैं खोजता हूँ चाबी,
दर-दर भटकता हूँ,
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे,
हर चौखट पर,
सिर झुकाता हूँ।
बाबा, फ़कीर, ज्योतिषी,
सब कहते हैं,
"चाबी मिलेगी,
बस सब्र रखो,
वक़्त आने दो।"
वक़्त बीतता है,
मैं थक जाता हूँ,
किस्मत को कोसता हूँ,
"क्यों मेरे साथ ही ऐसा?
क्यों मेरा ताला नहीं खुलता?"
हाथ जोड़ता हूँ,
रोता हूँ, गिड़गिड़ाता हूँ,
पर ताला,
वहीं का वहीं।
फिर एक दिन,
थक हार कर,
मैं बैठ जाता हूँ,
उसी ताले के पास।
अपनी मुट्ठी देखता हूँ,
जो बरसों से बंद थी,
एक अजीब सी बेचैनी,
एक अनजाना सा डर।
धीरे-धीरे,
मैं मुट्ठी खोलता हूँ,
और देखता हूँ...
वही चाबी,
चमकती हुई,
मेरी हथेली पर।
इतने सालों से,
मेरे ही पास,
मेरी ही मुट्ठी में।
एक पल को,
मैं हैरान होता हूँ,
फिर हँसी फूट पड़ती है,
एक कड़वी हँसी,
अपने आप पर।
क्या मैं सच में,
ये ताला खोलना चाहता था?
या बस,
खोजने का नाटक कर रहा था?
शायद,
मुझे डर था,
उस ख़ज़ाने से,
उन खुशियों से,
उन सपनों से।
शायद,
मुझे आदत हो गई थी,
इस बंद ताले की,
इस अंधेरे की,
इस शिकायत की।
अब क्या करूँ?
चाबी तो मिल गई,
पर हिम्मत,
शायद,
अभी भी खोई हुई है,
कहीं दूर,
मेरे ही अंदर...
शायद...
मुझे ताला खोलने से डर लगता है,
शायद...
मैं खोलना ही नहीं चाहता