मैं एक बार फिर डरी

मैं एक बार फिर डरी

जब उसने अपने पोषण से सींच कर मुझे नया जन्म दिया
हर नए प्रेम-क्षण से मेरे अंदर एक कविता जन्मी
मेरी आँख के आँसू पोंछते हुए जब उसने कहा
मैं सहारा नहीं, साथ देने आया हूँ
मैं ठहरी, फिर संकुचाई
मैं एक बार फिर डरी
मेरे अंदर की अमृता उसे इमरोज़ ना समझ ले

जब परमात्मा की भक्ति में समाधि लगाने बैठी
उस क्षण के एकाकीपन में प्रभु को पुकारा
रब की छवि तो मेरे सामने नहीं आयी
पर उसका चेहरा हर पल ध्यान में आया
मैं चौंकी, फिर घबराई
मैं एक बार फिर डरी
मेरे अंदर की मीरा उसे कृष्ण ना समझ ले

जब उसने चेहरे पे बिखरे मेरे बाल हटाये
अपने लबों से चूमा मेरा माथा, मेरी आँखें
अपनी जीभ के अंतिम छोर से छुए मेरे गाल
उसके होंठ जब मेरे लबों पर निशाँ बनाने लगे
मैं शरमाई, फिर मुस्कुराई
मैं एक बार फिर डरी
मेरे अंदर की जूलीएट उसे रोमीओ ना समझ ले


तारीख: 09.02.2024                                    कनिका वर्मा









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है