शायद दसवीं जमात में पढ़ा था कि "आचरण की सभ्यतामय भाषा सदा मौन रहती है " ...... परन्तु इस सभ्यता के दर्शन अब इतने दुर्लभ है कि शायद ही कही हो जाय। आजकल व्यर्थ ही लंबे -चौड़े व्याख्यानों को गांठने का चलन जोर-शोर पर है ,भले ही इन व्याख्यानों में सत्यता का प्रतिशत लेश मात्र हो अथवा हो ही ना।
भरी सभा में कुछ लोग जिस लहजे में अपनी शेखी बघारते है, उस आत्मविश्वास की तो दाद देनी चाहिए। लंबे - चौड़े व्याख्यानों के बाण छोड़ते समय सभा के कुछ मासूम चेहरे जो इन महानुभाव की आँखों से आँखे मिलाकर अपना सर हिलाते रहते है, निश्चित ही उनके सर की आवृत्ति इनके व्याख्यानों के लिए उत्प्रेरक की कार्य करती होगी, और ये महाशय फिर से कोई नया राग अलापने में मशगूल हो जाते होंगे।
ऐसे लोगो का सबसे पसंदीदा मुद्दा राजनीति ही होता है ये बताने की आवश्यकता तो प्रतीत नहीं होती। जिसे अच्छी जानकारी है उसका बोलना तो तर्कसंगत है परंतु कुछ ना ज्ञात होते हुए भी कुछ लोगो की बाते कुछ इस प्रकार होती है... मोदी जी की विदेश नीति मुझे तो भाई समझ नहीं आती.....या फिर कॉंग्रेस ने साठ सालो में कुछ भी नहीं किया... इत्यादि ।।। अरे मेरे भाई तूने तो खुद अपने जीवनकाल के तीस सावन भी नहीं देखे होंगे और तू साठ सालो की बात करता है।
ये जनाब मुख्यतः मौन ,शांत या गंभीर व्यक्तित्व के या अच्छे श्रोता प्रवृत्ति के लोगो को निश्चित ही अज्ञानी या मुर्ख ही समझते होंगे। एक अच्छा श्रोता अपने विपरीत पक्छ् के लंबे-चौड़े व्याख्यानों को सुनने समझने के बाद एक सटीक , छोटा और उचित उत्तर देने में माहिर होता है। इनकी खामोशियो को इतनी कमजोरी मत समझे ,निश्चित ही ये लोग छप्पन टके की बातें छौंकने वाले लोगो के छक्के छुड़ा सकते है।