सम्पन्नता का अदृश्य पक्ष

बहुतों के मुँह से मैंने सुना हैं कि वे प्रस्थितिवश तत्काल कह देते है,- “अभाव में स्वभाव खराब है ।”

गहन सोच-विचार करने पर मैंने पाया कि यह बात बहुत हद तक सही भी है । लोभी मन बहुत कुछ पाने के लिए लालायित रहता है । मगर अर्थहीनता उसे मन माफिक पाने सरोकती है । तब मन मस्तिष्क पर हावी हो जाता है, विवेकशीलता हर लेता है और आपसे अनैतिक कुछ हो जाता है । तदपि ‘आपका व्यवहार ही आपका परिचय है’ के मुताबिक आपका अभद्र परिचय जगज़ाहिर हो जाता है ।

कभी-कभी मैं इसके विपरीत भी सोचता हूँ कि क्या ‘अभाव’ का लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव ही पडता है, अनुकूल नहीं ?   

‘अभाव’ तो उत्प्रेरक है -- आत्मनिर्भरता, कर्तव्यपरायणता, सरलता, मधुरता, सच्चाई व ईमानदारी का । फिर ये कैसे हो सकता है कि यह आदमी को लुच्चा-लपच्चा, चोर-उचक्का, जेबकतरा व हत्थमार बना देता है और सरेआम, भरे बाजार में उसे शर्मिंदगी व बेइज्जती का पात्र बनना पड़ता है ।

जो गरीब हैं वो अभावग्रस्त हैं अर्थात् जो अभावग्रस्त हैं वही गरीब हैं । मगर गरीबी तो सच्चाई और ईमानदारी का पर्याय है । पुराने समय में लोग अक्सर कहा करते थे कि सरलता व ईमानदारी झोंपड़ियों में ही मिलती हैं । सच में झोंपड़ियों में रहने वाले ही भोले, सरल, उदार और ईमानदार होते हैं । महलों में रहने वाले तो अधीर, शातिर, क्रूर और चालाक होते हैं ।

एक समय ऐसा था कि मनुष्य अभावग्रस्त और अर्थहीन था, बेबस और लाचार था । लेकिन मनुष्य की इस अभावग्रस्तता व अर्थहीनता की ही तो देन है कि आज मनुष्य लगभग अभाव-मुक्त और स्वालम्बी है तथा उसकी बेबसी और लाचारी का ही सुपरिणाम है कि वह निरंतर सम्पन्नता व उन्नति की ओर बढ़ता ही जा रहा है । लेकिन जैसे-जैसे मनुष्य आत्मनिर्भर, सम्पन्न व उन्नत हुआ है वैसे-वैसे वह अपनी मनुष्यता की गरिमा को धूमिल करता जा रहा है । और आपसी भाई-चारे की जड़ें तटस्थता व वैमनस्यता रूपी तेज धार वाली कटार से नित प्रति- दिन काटता ही जा रहा है ।

सत्तर-अस्सी के दशक की बात करूँ तो मुझे याद है कि एक की जरूरत पर दस जमा हो जाते थे । दस की आवश्यकता पर सौ । देखते-देखते काम निपट जाता था । लोगों में कितना भाई-चारा था, कितना आपसी प्रेम-मुहब्बत थी, उनमें सरलता व सहयोग भावना कूट-कूटकर भरी थी ।किसी एक परिवार के पास कोई एक चीज़ नहीं होती तो वह कोई दूसरी चीज़ देकर जरूरत की चीज़ हासिल कर लेता था और उसका उस दिन का काम चल जाता था, परिवार में खुशी व शांति बरकरार रहती थी । सत्तू से आटा, आटे से चावल, मक्के से चना तो चने से कुछ और....... । वस्तु विनिमय का कितना बढ़िया उदाहरण था ।

मोहल्लों व टोलों में आग की एक लौ से सारे घरों के चूल्हे जला करते थे । लोग बाट तकते थे कि किसके घर से उड़ता हुआ धुआँ निकल रहा है । प्रेम व अपनापन रूपी एक चिंगारी से घर-घर में खुशी व संतोष रूपी आग की लौ जल जाती थी ।

लोग “अभाव” में भी सहज बने रहते थे । कितने ही दु:ख व परेशानियों से घिरे हों पर ईमानदारी व सच्चाई का दामन नहीं छोड़ते थे । अपनी सम्पन्नता व वस्तु सुलभता का दम्भ नहीं भरते थे । परन्तु आज ठीक उसके विपरीत परिस्थितियाँ घर-परिवार व समाज में दृष्टिगत हैं । कहीं भी वो प्यार-मुहब्बत, भाई-चारा, अपनापन और सहयोग भावना इक्का-दुक्का को छोड़कर आज परिवार और समाज में देखने को नहीं मिल रहे हैं ।

मनुष्य की अर्थोपलब्धता, अति सम्पन्नता, वस्तुसुलभता व आत्मनिर्भरता जहाँ मनुष्य को अति सुविधासम्पन्न और सीमाहीन चिंतामुक्त बना रही हैं । वहीं उसकी ये सारी अलंकृत उपाधियाँ व ये सारी विलासितापूर्ण सामग्रियाँ मिलकर उसी को स्वार्थलोलुप्त व मतलब- परस्त बना रही हैं । उसे स्वयम् इसका आभास तक नहीं है कि उसकी अति सम्पन्नता व आत्मनिर्भरता उसी के द्वारा सिंचित भाई-चारा व भाई-बन्धुत्व रूपी परिवार और समाज  में पसरी प्रेम-लताओं की जड़ों को क्षण प्रतिक्षण खोद रही हैं । उसे अगर इसका आभास नहीं है तो कम-से-कम इतना तो पता ही होगा कि अरथी को भी उठाने के लिए चार लोगों की जरूरत पड़ती है । अब आप सोचेंगे कि चार लोगों की जरूरत बता कर लेखक आपको कठोर, क्रूर व अनुदार होने से डरा रहा है । तो ऐसी बात नहीं है बंधुओ ! आप बेशक कठोर, क्रूर व अनुदार बने रहिए और ठाट-बाट में रहते हुए ठाट से सम्पन्नता व अमीरी का राग अलापते रहिए ।  


तारीख: 17.12.2017                                    दिनेश एल० जैहिंद









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