भारत में दो व्यक्तित्व ऐसे हैं जिनको भुलाया नहीं जा सकता। पहले हैं स्वयं भोलेनाथ और दूसरा व्यक्तित्व है बनारस। अब बनारस को व्यक्तित्व कहने का मुख्य कारण है बनारस की आबोहवा। हमने यह महसूस किया कि बनारस जाकर आप बनारस के हो या ना हो, फिर भी बनारस आपका हो जाता है। बनारस को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे गुणों और अवगुणों से बना कोई अमर मनुष्य हो जो कि अपने आप में संपूर्ण है।
एक बार शुक्रवार की शाम को इच्छा हुई कि बनारस के दर्शन कर आएं। अपने कंपनी के मानव संसाधन वालों से पता चला कि छुट्टी मिल सकती है। बस और क्या था, छुट्टी की अर्जी डालकर शुक्रवार की रात को हम बनारस की ट्रेन में बैठे हुए थे। ट्रेन दिल्ली से निकल कर झूमते झूमते चल रही थी और मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं गंगा की लहरों पर बैठा हुआ झूम रहा हूं। बनारस पहुंचने से पहले चित्त में एक अलग सी शांति थी जो गंगा की भांति गहरी थी।
ट्रेन पर एक महानुभाव बैठकर पान खाते हुए अपनी शिखा बांध रहे थे। एक महिला अपनी बांहों में ऊन का गोला दबाए एक टोपी बुन रही थी। उन सबको देखकर लग रहा था जैसे भगवान ने बनारस को बड़े फुर्सत में बनाया है। खैर हम बनारस पहुंचे और होटल में सामान रखकर सीधा अस्सी घाट पहुंच गए। हमें कभी कोई प्रेमिका नहीं मिली मगर अस्सी पहुंचकर ऐसा लगा जैसे कोई पुरानी प्रेमिका मिल गई हो। गंगा के दर्शन हुए और लगा की गंगा बनारस की कोई पुरानी प्रेमिका रही होगी। सांझ का समय था और मैं दशाश्वमेघ घाट पर बैठा हुआ था और वहां से गंगा के पुल के ऊपर कोई रेलगाड़ी गुजर रही थी । यह विहंगम दृश्य ऐसा लग रहा था जैसे बनारस का दिल धड़क रहा हो और उस धड़कन से गंगा में खलबली मची हो।
अस्सी से बाहर निकलते ही सामने की नुक्कड़ पर ठंढई की एक दुकान थी जहां कुछ बनारसी गुरु पहले से बैठे हुए थे। हमने अपनी ठंढई ली और दुकान के अंदर बैठ कर उनकी बातें सुनने लगे। गुरु ! वहां तो सबके सब ज्ञानी थे। चाणक्य ने कुछ दिनों पहले क्या-क्या कहा है यह बात वाट्सैप पर देख देख कर सब बता रहे थे। एक गुरु तो यह भी बता रहे थे कि नेहरू एड्स से मरे हैं। उनके ज्ञान की धारा देखकर मुझे लगा कि बनारस में बकैती नहीं सुनी तो समझो बिना चीनी वाला रसगुल्ला खा लिया। वहां बैठे सभी विद्वान भांग के दो-दो गोली खाकर भोलेनाथ की शरण में थे। कुछ लोग भोजपुरी गानों की अश्लीलता पर चिंता जता रहे थे तो कुछ लोग बॉलीवुड के नए गानों को कोस रहे थे। इतने में एक और गुरु आए और सबसे कहा "गुरु महानंद शुक्ला चल बसे"। यह बात सुनते ही सब वहां से उठ कर चल दिए और जिज्ञासावश हम भी उनके पीछे चल दिए। वहां से सब दशाश्वमेध घाट पहुंचे जहां शुक्ला जी का शरीर रखा था। सबने हंसते मुस्कुराते शुक्ला जी को अग्नि के अधीन किया और ऊपर बने चबूतरे पर बैठकर सबने एक और भांग का गोला खाया। सारे विद्वान जन वहां से उठे और विचार किया कि कल बाबा विश्वनाथ के दर्शन कर आएंगे। शुक्ला जी की चिता जल रही थी और कुछ बच्चे सामने बैठकर अपना हाथ सेक रहे थे। एक बार फिर से गंगा पुल के ऊपर से रेलगाड़ी गुजर रही थी और बनारस जैसे रुका हुआ था और मेरे मन में दुष्यंत की वह कविता चल रही थी जिसमें वह कहते हैं "तू किसी रेल सी गुजरती है मैं किसी पुल सा थरथराता हूं"। हमें लगा जैसे बनारस के ऊपर गंगा चल रही थी और बनारस अपना सर्वस्व लेकर वहां खड़ा था।