बात दिल्ली के नार्थ कैंपस की है। उन दिनों मैं किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था। कॉलेज के व्यस्त दिनचर्या के कारण ख़ुद के लिए समय निकालना शेर के जबड़े से हिरण निकलने के बराबर था। व्यस्त दिनचर्या में उलझे होने के कारण मानो स्वतंत्र विचारों को सांप सूंघ गया था।
रविवार का दिन था। बहुत चिंतन-मनन के उपरांत इस नतीज़े पर पहुँचा कि किसी भी हालत में समय निकालना ही है। निदान सूर्योदय के पूर्व का समय था। इस समय में निकट के रोशनआरा बाग़ में मॉर्निंग वॉक का अतिरिक्त दिनचर्या शामिल किया। एक तरफ जहां ताज़गी और ऊर्जा की हाई हॉर्स पॉवर मशीन है सुबह...वहीं दूसरी तरफ जीवन के विभिन्न आयामों का केंद्र बिंदु। यही वजह रहा होगा इबादत का सबसे ख़ास समय सुबह होने का।
इस सुबह को आरम्भ की अवधारणा कहूँ या ऊर्जा से ओत-प्रोत पारी की शुरुआत...दोनों ही कथन शत-प्रतिशत सत्य हैं। इतनी भाग-दौड़ भरी जिंदगी में मानसिक और शारीरिक संतुलन बहुत जरूरी होता है। यदि हम शारीरिक रूप से स्वस्थ रहेंगे तभी मन और मस्तिष्क स्वस्थ रहेगा और हम अपने जिम्मेदारियों को सही मायने में अंजाम दे पायेंगे। सूर्योदय से पूर्व उठकर बाग़ में जाने का सिलसिला शुरू हुआ।
यह मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय था। कोयल की कूंक,पपीहे की टेर, बुलबुल की मनमोहक तराना मन को भा जाता। ऐसा लगता मानो प्राकृति में खो जाता था... दो घंटे का समय कैसे बीत जाता पता ही नही चलता। वहां उम्रदराज़ लोगों द्वारा जीवन के अंतिम पड़ाव में भी अथाह ऊर्जा का संचालन देख मेरी ऊर्जा में भी इज़ाफा होने लगा। बताते चलूँ बाग़ दो भागों में बटा हुआ था एक तरफ रोशनआरा क्रिकेट क्लब था और दूसरे तरफ पार्क बीचोबीच से रोड पास होती थी। जहां से सुबह सुबह सैकड़ों की तादाद में लोग अपने रोज़ी-रोटी के लिए जाते हुए दिखते थे तो कुछ देश की सेवा सरहद पर करने हेतु दौड़ लगाते नज़र आते थे। सेवानिवृत सज्जनों द्वारा अपने बच्चों के साथ पार्क में आते देख नवोदय विद्यालय की मॉर्निंग पी.टी. की मधुर स्मृतियों में खो जाता था।
बताते चलूँ नवोदय विद्यालय एक आवासीय विद्यालय है जो केंद सरकार की एम. एच्.आर.डी. द्वारा पोषित होता है। मुख्य रूप से गरीब मेधावी छात्रों को समर्पित है। पार्क में एक ऐसा किनारा था जहां मानवतावाद की इबारत लिखी जा रही थी। उस तरफ एक विशालकाय वट वृक्ष के पास जहां चूहों के अनगिनत बिल थे अक्सर उम्रदराज़ लोग सुबह-शाम चूहों को खाना खिलाते थे। एक दिन जब उस रास्ते से गुजर रहा था तो एक चूहा अचेत अवस्था मे पड़ा हुआ नजर आया। पहले सोचा जाने दो परन्तु मेरी अंतरात्मा बोली नहीं मनुष्य से ज्यादा वफ़ादार अन्य जीव- जंतु होते हैं उनको बुरे हालात में देख अनदेखा नही करना चाहिये। किंकर्तव्यमूढ़ मनोदशा! देखा तो चूहा जीवित था परंतु पैर धागे से फंस जाने से खून से लथपथ था। आनन-फानन धागा निकाल मरहम पट्टी किया और एक बिल के पास छोड़ दिया।
दो-तीन दिन लगातार पट्टी के बाद चूहा बिल्कुल सही हो गया। हमारी दोस्ती हो गयी। प्यार से उसे बिट्टू बुलाता था। अब मैं भी रैट लवर की उस सूची में शामिल हो गया जो प्रतिदिन उन्हें खाना खिलाते थे। प्रतिदिन वट वृक्ष के पास आटा,मैदा और रोटी इत्यादि के टुकड़े लेकर जाता और एक आवाज़ में चूहों की जमाअत जिसका सरदार बिट्टू था बाहर निकलती और भोजन करने लगती। अब मेरे बिट्टू जीवन का हिस्सा बन चुका था।
एक दिन की बात थी, सुबह मूसलाधार बारिश हो रही थी और अंधेरा भी था परन्तु मैं बिट्टू सेना की भूख सहन नही कर पा रहा था। मैं अपना छतरी जिसकी तीलियाँ, कपड़े और डंडी स्वछंद विचरण कर रहे थे अर्थात आदम जमाने की लग रही थी। सुई-धागा निकाल मरम्मत कर पार्क के लिए रवाना हुआ। वट वृक्ष के पास पहुँचकर एक आवाज़ दिया और बिट्टू सेना हाज़िर। आज मौसम की वजह से साफ दिख नही रहा था।
अचानक बिट्टू तेज रफ़्तार से मेरे पीछे जा पहुँचा मानो कोई आवाज लगाया हो... भाग बिट्टू भाग.. मैं मशगुल खाना खिलाने में...सोचा हर दिन की तरह उछल कूद मचा रहा होगा शरारती कहीं का। खाना पूरा होने को था पर बिट्टू? कई प्रकार के संशय। यह सवाल मुझे शक के दायरे में खड़ा कर दिया।
देखा तो एक काला सर्प महज दो-चार मीटर की दूरी पर उलट-पुलट रहा है। वह मेरे बिट्टू को निगलना को था। मैं जान की परवाह किये बगैर सर्प की तरफ बढ़ा पर देर हो चुका था। मेरी जान बचाने के लिए ख़ुद काल के गाल में समा गया...बिट्टू। वास्तविक प्रेम को पारिभाषित कर गया।
मौज़ूदा हालात देखें तो मनुष्य-मनुष्य के जान का प्यासा है सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ रचना होने के बावजूद। क्या इसे घोर कलियुग की संज्ञा दूँ जहां मानव महज वफ़ादारी का पुतला है परन्तु उसकीआत्मा मृतक अवस्था मे पड़ी है। सही मायने में वफ़ादार तो अन्य जीव जंतु है जो बिना कुछ बोले ही दुःख की भावभंगिमा समझ जाते है और वफ़ादारी की मिशाल कायम कर जाते है। शायद मेरा बिट्टू भी कुछ ऐसा ही था।