औरत से पंगा नेवर चंगा

 

"अपने काम से काम रखो. मुझसे पंगा मत लो. क्योंकि औरत से पंगा; नेवर चंगा..." - स्वर्णा की बुलंद आवाज़; पूरी कॉलोनी में गूँज रही थी.

"आप क्या समझते हैं मैं जानती नहीं, मेरे पीठ पीछे कितनी बातें होती है. छोटे बाल, आधुनिक कपड़े, स्कूटी चलाने वाली और अपने दम पर कमाने वाली और 'अकेली' अपनी बच्ची की पालने वाली... की आप सभी की नज़रों में क्या कीमत है?? अच्छे से समझती हूँ. लेकिन शायद आप भूल गए की मैं औरत हूँ और मुझे अपने पर गर्व है."

"क्या औरत का अकेला या आत्मनिर्भर होना या उसके कपड़े ही; उसके चरित्र का प्रमाण है? गलत बात को स्वीकार न करना, अपने हक के लिए लड़ना, अपने आत्मसम्मान और इज़्ज़त की रक्षा करना गुनाह है? बिन मतलब आपसे जो पंगा लेते हैं, उन्हें सबक सिखाना जुर्म है? हाँ!! मेरे घर में कई पुरुष ताका-झांकी करते हैं पर उन पुरुषों में कोई आप के बेटे, कोई भाई और कोई आपके पति हैं." -  स्वर्णा ने एक तीखी नज़र मिस्टर गुप्ता पर डाली, तो वो बगले झांकने लगे.

"हाँ... मैं तलाक़ाशुदा हूँ और मैंने अपने पति को छोड़ा है, क्योंकि उस आदमी ने औरत के आत्मसम्मान से पंगा लिया और मैं अपने ससुराल वालों को कभी माफ़ नहीं कर सकती क्योंकि उन्होंने बहु के संस्कारों से पंगा लिया, और तो और... मेरे बॉस भी जेल की हवा खा रहे हैं क्योंकि उन्होंने एक औरत के सम्मान, उसकी इज़्ज़त से पंगा लिया... लेकिन शायद सभी भूल जाते हैं एक औरत पर ऊँगली उठानी तो आसान है; पर उससे पंगा लेना ठीक नहीं." - स्वर्णा का सिर गर्व से ऊँचा उठ गया.

"आख़िर!! कसूर क्या है मेरा?? दो महीने हो गए इस सोसाइटी में आये..., आप लोग मुझसे दो शब्द बोलना तो दूर, मुझ पर ताने कसते हैं. मुझे अपमानित करते हैं. अपनी बहु-बेटियों को मुझसे बात नहीं करने देते; शायद मेरे तलाकशुदा होने के कारण. आपने लोगों ने तो मेड को भी मेरे घर काम करने से मना कर दिया और तो और... मेरी छोटी-सी बच्ची के साथ भी कोई खेलने को तैयार नहीं और अब आप चाहते हैं की मैं इस सोसाइटी को छोड़ कर चली जाऊँ; क्योंकि मैं कलंकित हूँ, चरित्रहीं हूँ... " - स्वर्णा के शब्दों में लाचारी झलक रही थी.

"अरे कलंकित मैं नहीं; आपकी सोच है. पुरुषों के लिए औरत का आगे बढ़ना कभी स्वीकार न होगा. लेकिन आप सभी औरत होकर मुझसे ही पंगा ले रही हैं." - सभी औरतों की आँखें झुक गई.

"अगर इतनी ही ताकत है न; तो इस समाज से पंगा लो. अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ पंगा लो. बेटा और बेटी के फर्क पर होने वाले दकियानुसी विचारों से पंगा लो न ... लेकिन मुझसे पंगा क्यों? मैंने क्या बिगाड़ा है आपका?"

"अपनी बेटियों को इतना मज़बूत और सशक्त बनाओ; की कोई उनसे पंगा लेने से पहले सौ बार सोचे. न की डर के कारण उसे घर पर बिठा दो... अपनी बेटियों को दहेज की आग में जलने और घरेलू हिंसा के कारण घर की चार दीवारी में घुट-घुट कर जीने से कहीं अच्छा है घर की देहलीज़ पार करा दो. और तो और ये समाज; तो औरत के गर्भ से भी पंगा लेने से बाज़ नहीं आता. पुत्र मोह में बेटियों की हत्या... ऐसी घटिया सोच से पंगा लो." - स्वर्णा ने सजल आँखों से अपनी बेटी को देखा.

"अरे... मिर्च-मसाला लगाने की बजाय; खाने में और रिश्तों में मसाले का प्रयोग करो और दूसरों के काम पर नज़र रखने की बजाय अपना ही कोई काम शुरू करके आत्मनिर्भर बनो और अपने काम से काम रखो. बुराईयों के खिलाफ पंगा लो; पर मुझसे पंगा मत लो क्योंकि औरत से पंगा नेवर चंगा..."


"हाँ स्वर्णा दीदी!! औरत से पंगा; नेवर चंगा क्योंकि हो जायेगा दंगा..." - दो-तीन लड़कियों ने लड़कों के ग्रुप की धुनाई करते हुए कहा, जो न जाने कितने दिनों से उन्हें परेशान कर कर रहे थे. स्वर्णा ने ख़ुश होते हुए उन लड़कियों के लिए ताली बजाई और सोसाइटी में भी सभी ने स्वर्णा से माफ़ी मांगते हुए उसके लिए ज़ोरदार ताली बजाई. हाँ कुछ पुरुष भी ताली बजा रहे थे शायद डर के कारण.

अगली सुबह; स्वर्ण सी सुनहरी सुबह थी... लगभग सभी के घर से डंके की चोट पर आवाज़ आ रही थी. "औरत से पंगा; नेवर चंगा..." स्वर्णा के आत्मसम्मान की आभा-से उसका चेहरा और भी स्वर्णित हो गया.
 


तारीख: 05.02.2024                                    मंजरी शर्मा




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