बुलडोज़र कब आएगा

शहर का विकास होता रहा। गगनचुंबी इमारतें बनती रहीं। नए सैक्टर, मार्किट, मॉल्ज बनते गए। शहर के एक किनारे साथ साथ झुग्गी - झोपड़ियां भी मशरुम की तरह उग आईं।  इनमें उन प्रवासी मजदूरों ने घोसले बना लिए जो दिन में बड़े बड़े भवन बनाते और शाम ढलते उसमें लौट आते। इस इलाके का नाम कालोनी नंबर एक, दो,तीन चार.......सात पड़ता गया। कालोनियां कुकुरमुत्तों की तरह  उगती रही और अमर बेल की तरह फैलती चली र्गइं। मजदूरों की बस्ती उगी तो जा़हिर है कि नेता भी उगे होंगे। हर बगिया के नेताओं से कालोनियां सजने लगी। फलने फूलने लगीं।कुछ तो म्युनिसिपल कार्पोरेशन के चुनाव जीत कर पक्के जनप्रतिनिधि बन गए। उनकी पार्टियां समय समय पर बदलती गईं। लेकिन वे हमेशा लीडर बने रहे।
          झुग्गियां एशिया के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक शहर में पनप रही थी।नेताओं के लिए,यह एरिया , एक ओर वोट बैंक का गढ़ बनता जा रहा था तो दूसरी ओर जन सामान्य के लिए एक  सिर दर्द। नेताओं को इसमें अपना उज्जवल  भविष्य दिखता तो  संभ्रांत वर्ग को  यह इलाका एक बढ़ते हुए नासूर की तरह दिखता। कुछ समय बाद अमीर लोगों के रहने के लिए जगह सिकुड़ती गई और झोपडियां ऐसे प्लाटों पर कैक्टस की तरह  फैलने लगीं। कुछ को ये मखमल में टाट का पैबंद सी दिखने लगीं। इनमें रह रहे प्रवासी मजदूरों की बहुत सी गतिविधियां मध्यम एवं उच्च वर्ग को अखरने लगी और  एक दिन प्रशासन को भी खलने लगी।
         राम खिलावन की भी इसी एक कालोनी में झोपड़ी थी। एक दिन एक मॉल की बेसमेंट की खुदाई के दौरान मिटट्ी का बड़ा तोदा गिरने से उसकी लीला समाप्त हो गई। वह अपने पीछे पत्नी और पांच बच्चे छोड़ गया। परबतिया कुछ दिन अपने मायके  हरदोई चली गई परंतु वहां गुजारा न होने के कारण फिर अपने घोंसले में लौट आई। घरों में काम करती । पांच बच्चों के लालन पोषण में उसकी कमर टूट जाती।
       एक छोटे से अतंराल के बाद,इसी कालोनी में रह रहे और राम खिलावन के मुंहबोले दोस्त, पुत्तन का उसके घर आना जाना शुरु हो गया। अन्य समुदाय से संबंधित  पुत्तन के अपने चार बच्चे थे। लेकिन उसके बच्चे और पत्नी हरदोई के निकट एक गांव में ही संयुक्त परिवार में रहे। कभी उन्होंने इस नगरी का मुंह नहीं देखा। पुत्तन दो तीन महीने में सद्भावना पकड़ता और परिवार के दर्शन कर आता। इधर दो साल में ही, परबतिया के बच्चे, पांच से बढ़कर  सात हो गए। गुजारा मुश्किल हो रहा था।
      और एक दिन कोरोना काल में , अचानक लॉक डाउन लग गया। रेलें, बसें, बंद । जिस फैक्ट्र्ी में पुत्तन काम करता था, वह बंद हो गई।  रोजगार भी खत्म। पुत्तन को अपने बाल बच्चों की याद सताने लगी। वह तपती दोपहर में साईकिल लेकर ,कैरियर पर एक बैग में खाने पीने का सामान समेट कर चल पड़ा अपने गांव। यह सफर उसने तीन दिन में तय किया। अब शायद ,यह होनी ही थी कि गांव से कुछ दूर पहले, रात के अंधेरे में एक ट््रक की चपेट में आ गया और अल्लाह को प्यारा हो गया। परबतिया इतने बच्चों को उठा कर कहां जाती ....कैसे जाती सो कुछ घरों ने उसकी मदद की और वह कहीं नहीं गई।
       समय सामान्य हुआ । तभी एक दिन प्रशासन ने इन झुग्गी- झोपड़ियों को अनाधिकृत और अवैध घोषित करके हटाने का नोटिस दे दिया। नोटिस तो आते रहते, जाते रहते। बस्ती उठाने की घोषणाएं होती, नेता इकटठे होते, मजदूरों को लेकर प्रदर्शन करते, कुछ श्रमिक जोश में पुलिस से लड़ कर हाथ पैर तुड़वा कर घर बैठ जाते।रोजी रोटी के लिए तरसते । नेता लोग, जिलाधिकारी को ज्ञापन देते और मामला रफा दफा हो जाता। चूहे- बिल्ली का खेल चलता रहता,लेकिन तलवार हमेशा  लटकती रहती।
        एक दिन उच्च न्यायालय के आदेश पर  प्रशासन सख़्त हुआ। सुबह सवेरे बुलडोजरों की आवाजों से कालोनी गूंजने लगी। पीला पंजा झोपड़ियों को तहस नहस कर रहा था। कुछ मजदूर सीना तान कर खड़े हो गए परंतु पुलिस के डंडे के आगे ठंडे हो गए। लीडर गायब हो गए। चीख पुकार, भगदड़... पुलिस के डंडे ....लाउड स्पीकर पर लगातार वार्निंग.......अपना सामान समेटतेे प्रवासी इधर उधर बदहवास भागते रहेे । परबतिया कभी सामान संभालती कभी बच्चों को।प्रशासन ने इन्हें उजाड़ने से पहले , बसाने की कोई व्यवस्था नहीं की थी। परिणामतः सबकी रातें कड़कती ठंड में खुले आसमान के नीचे कटी।वह कभी रामखिलावन को याद करती तो कभी पुत्तन को।
     सुबह उठते ही परबतिया ने बच्चे गिने तो गुड़िया की कमी नजर आई। कब्रिस्तान बन गई कालोनी में उसने मलवा उठा उठा कर तलाशने का प्रयास किया। अन्ततः एक पत्थर के नीचे एक नीली फ्रॉक का टुकड़ा नजर आया। कुछ मजदूरंों की मदद से पुलिस ने गुडिय़ा को बाहर निकाला और हस्पताल ले गए।जो होना था वह हो चुका था। कड़ी सुरक्षा के बीच सफेद गठड़ी बनी  गुड़िया को दफना दिया गया।प्रशासन ने मीडिया को पूरे नियंत्रण में रखा था। जरा सी भी खबर बाहर ,पर तक नहीं मार सकी।
       परबतिया को मुंह बंद रखने के लिए एक सरकारी ठेकेदार से कुछ मुआवजा दिलवा दिया गया।इसके अलावा उसे एक नई कालोनी में एक झुग्गी, बढ़े हुए किराए पर दिलवा दी।मुआवजा मिलने से परबतिया खुश थी। अपने सात में से छः बचे हुए बच्चों से खुश थी। उसके जीवन स्तर में एक बदलाव था। बड़ी कोठियों में काम मिल गया था। बड़ी लड़की जो मात्र बारह साल की थी , उसे भी एक कोठी में मेड लगवा दिया। वह बार बार बुलडोज़र वाली घटना को याद करती परंतु उसे खास अफसोस नहीं होता । गुड़िया एक मुआवजा बन कर उसके यहां आई थी , यही सोच सोच कर वह तसल्ली कर लेती। मुआवजे की रकम ने  उसकी दिशा और दशा दोनों बदल दी थी।
         वक्त बदला। झुग्गियों की एक नई कालोनी फिर उग आई।इसका नाम पड़ गया कालोनी नंबर आठ। नई आबादी । नए नए नेता भी उग आए।
इस बार उसकी झुग्गी टाट, बांस या पालीथीन शीट की नहीं थी अपितु ईटों और टीन की छत वाली थी जिसे एक नए छुटभैया नेता ने बनवाया था। कालोनी नंबर आठ का आधा हिस्सा उस युवा दबंग नेता का था। बिजली का कंुडी कनैक्शन उसका अधिकार था। पानी की व्यवस्था उसने सरकार से हैेंड पंप लगवा कर दी थी । पूरा किराया वसूलता।
      फिर वक्त ने करवट ली। सरकार बदली। निजाम बदल गया । सोया प्रशासन भी फिर कंुभकरणी नींद से  जाग उठा। वह सख्त हुआ। सुबह सुबह फिर पीले पंजे ,कालोनी नंबर आठ को मटियामेट करते रहे। परबतिया के चेहरे पर बुलडोज़र का कोई ख़ौफ नहीं था। बुलडोज़र उसकी लाइन के पास आता और साईड से निकल जाता। उल्टे सामने वाली झुग्गियों को रौंदता रहा। यह लाईन ताकतवर नेता ने बनवाई थी। अवैध होने के बावजूद सुरक्षित रही जबकि आसपास वीरानी छा गई।
       परबतिया पुराने ख्यालों में खो गई जब उसे मुआवजा दिलवाया गया था।झुग्गी के पास मंडराते हुए छः बच्चों को देख कर  ,वह सोचने- लगी इस बार यह बुलडोज़र इन झुग्गियों की तरफ क्यों नहीं आया......! कब आएगा यह मेरी झुग्गी की तरफ ? एक बार आता तो जिंदगी का बोझ और
कम हो  जाता।

 


तारीख: 12.03.2024                                    मदन गुप्ता सपाटू









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