हस्त रेखाओं की भाग्य लिपि
अक्सर भौचक्का करती है
अमिट फीकी और सख्त
गहरी टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं
यही रोशनी का दरिया बन बहती है
अंधकार का प्रसुप्त वन बन
उत्तप्त अग्नि दहलाती है
अस्तित्व भी यही निर्मित होते है
प्रतिष्ठा भी इसी में रची बसी है
तो क्या सम्पूर्ण सत्य
केवल और केवल
नियति की अमिट रेखाओं के
दायरो में ही कैद है ..........?
फिर तो सचमुच श्रम सदा के लिए क्षीण हो जाता
मन और हृदय का साहस क्या कर लेता ?
विश्वास और प्रेरणा हृदय में कहाँ ठहर पाते ?
कल्पना सदा- सदा के लिए मर जाती !
और दृष्टिकोण कितने अंतरालों को भेद
कितनी दूर झाँक पाता !
आशा कहाँ जीवित रह पाती ?
जीवन सदा के लिए
जंजीरों में जकड़ जाता
साँसें भी कैदी हो जाती ......
और सत्य भी झूठ के संग
अपनी उद्धग्र गति से बहता ......