कभी कहीं दरिया के किनारे..
किन्ही बादलों के छाँव तले
काश हम बैठें और
दोनों पाँवों से पानी के छीटें उड़ाते
निहारते रहे उस सुरज को
जो दुनियां मे उजाला बांटकर
अपने घर को लौट रहा हो
और जाते जाते भी हमारे सारे
अरमानों को अपने नारंगी रंग दे जाये
लहरें गुनगुना कर अपने सारे तरंग
हममें भर जाये..
काश.....
काश कोई गोधुली बेला तुम्हें
हम तक खींच लायें
और काश कोई सुनहरी सुबह
तुम्हारे जाने का रास्ता भुला जाये...
ऐसा ना हो तो खैर कोई बात नही ,
बस मेरे जेंहन से ये सारे ख्याल
उस अंतहीन आसामान के आगोश में समा जाये...