कल जब ये सुबह होगी,
ये इतनी उजली नहीं होगी..
सावन की सुलगतीं रातों से निकल कर
भीग रही, रिस रही होगी
ये स्याह होगी, अधजली होगी,
झोंको और छींटों में बैठी,
किसी कोने में दांत किटकिटा रही होगी।
कल जब ये सुबह होगी,
ये बहुत ही गहरी होगी।
लहराते हुए बादल गुजर भी जाये,
फिर भी न उठेगी,
देखना तुम्हारे हीं घर के बहार,
पानी से भरे गड्ढो में कही सो रही होगी।
कल जब ये सुबह होगी,
ये सारे पेड़ गीले,
और पत्तों से सरकती बुँदे होंगी।
कबूतरों की तरह, पीठ में अपना सर छुपाये
आधे भीगे, आधे सूखे हम होंगे..
और शोर मचाती स्टोव की आंच पर,
काली सी एक पतीली होगी।
कल जब ये सुबह होगी,
काफी खूबसूरत होगी।