किस काम का

वो रोते प्रताड़ित चेहरे,
 नैतिकता के इंतजार मे,
न्यायोचित, सर्वधर्म भूमि,
सप्तसिंधु संस्कार के,
हृदय सागर भारत की ओर,
आकांक्षित हो निहारते।
क्या इतना नहीं पर्याप्त है,
हनन उनके स्वाभिमान का?? 
यू आत्मा मरती रहीं तो,
प्राण हो किस काम का।

यू ही नहीं कोई देश त्यागता,
न त्यागता परिजन, समाज,
असहन हो जाए जब,
दुशासनो के कृत्य काज,
शांतिप्रिय ज़न पाण्डव जैसे,
है एकान्तवास को पधारते।
क्या नष्ट होगा कभी,
दुशासन मनोविचार का??
मान यू जाता रहा तो,
शौर्य हो किस काम का।

फिर किसी देवकी पुत्र का,
है वध निरंतर हो रहा,
धार्मिक नियमे बखान कर,
आततायी घर मे सो रहा,
अल्पसंख्यकों की भीड़ वह,
नयी द्वारिका है तलाशती।
क्या होगा नही अंत कभी,
कंसों के अत्याचार का??
भविष्य यू मिटता रहा तो,
धर्म हो किस काम का।
 


तारीख: 06.04.2020                                    अंकित कुमार









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