सशक्त कर आवाज़ को, बुलंदिया से भी परे।
बढ़ा कदम, सर उठा क्यों इस संकीर्ण समाज से डरे।।
समाज बहुत मैला है ये, तुझे न समझेगा कभी।
चरित्र पर तेरे अक्सर, संदेह करेगा युहीं।
समाज की इस सोच से तू कभी डारियो नहीं।
बाद में विलाप हो, ऐसा कार्य कभी करियो नहीं।।
रोश की अग्नि को ज्वाला कर, कि समाज भी तुझसे डरे।
सशक्त कर आवाज़ को, बुलंदिया से भी परे।
बढ़ा कदम, सर उठा क्यों इस संकीर्ण समाज से डरे।।
सर ढका है, आँखें नीचे हैं..
मकान की दीवारें अनंत ख्वाब भीचें है,
ख़्वाबों की ऊंचाइयों के समक्ष नभ भी मनो नीचे है,
पर इन् ख्वाबों को भी क्या खबर, के दर्शक ही आँखें मीचे है।
क्यों परिंदो को तू पिंजरे में यूँ रखा करे,
खोल दे पिंजरा, कि चल दे इन के संग नभ के परे।
सशक्त कर आवाज़ को, बुलंदिया से भी परे।
बढ़ा कदम, सर उठा क्यों इस संकीर्ण समाज से डरे।।
आबरू के भय से कतराती है तेरी ज़िन्दगी।
चार कदम चलकर ही थम जाती है तेरी ज़िन्दगी।
आँख मूंदे तू भी जीती है युहिं, सबके लिए।
सह जाती है हर गम को चेहरे पर तू मुस्कानें लिए।
औरों की खुशियों पे तेरी ही ख्वाहिशें क्यों मरे।
हिम्मत जुटा कर दे कुछ ऐसा के समाज ही तेरी पूजा करे।
सशक्त कर आवाज़ को, बुलंदिया से भी परे।
बढ़ा कदम, सर उठा क्यों इस संकीर्ण समाज से डरे।।
तू ही बेटी है किसी की, तू ही बहन और माँ भी है।
ये कमज़ोरियाँ नहीं है तेरी, जीने का हक़ तेरा भी है।
लड़की होना, तेरी कमज़ोरी नहीं, तेरी सबसे बड़ी ताकत है।
मत दे ध्यान किसी की सोच पर, बेवजह बोलना लोगों की आदत है।
बस बढ़ तू आगे, थाम कर हाथ अपने आप का।
कर तू उद्यम, और बन जा गर्व तू माँ-बाप का।
सिद्ध कर दे खुद को, के हर नारी हुंकारें भरे।
सशक्त कर आवाज़ को, बुलंदिया से भी परे।
बढ़ा कदम, सर उठा क्यों इस संकीर्ण समाज से डरे।।