मन का पंक्षी

देखो तो ये मेरे मन की मनमर्जियां 
कहने को तो है मेरा लेकिन मेरी सुनता कहा है
मैं कह दूँ जो न तो ये रूठे मुझी से


जो कह दूँ मैं हाँ तो उड़ता ये ऐसे
जैसे हो ये कोई पंक्षी हवा में
जो थामूँ मैं इसको तो मुझको ही काटे
जो कह दूँ मैं इससे न उछलो तुम इतना
तो सुनता कहाँ ये लो फिर उड़ चला ये


है बावला ये पूरा बुद्धु सा मन है
एक पल को तो मुझको भी उड़ा के ले जाता
वो सपनों से सजे सुन्दर से गगन में
एक पल को तो लगता ठहर जाऊँ बस मैं
न सोचूँ न समझूँ बस मन की करूँ मैं


लेकिन जब उड़ते-उड़ते एक ठोकर मिली तो
हाँ देखी तब मैंने पीछे मेरी दुनियाँ
जो मेरे ही लौटने की राह तकती हो जैसे
वो ही पल था जब लगा ये क्या हो गया मुझसे
दो पल की चाँदनी ने अपनों से दूर कर दिया मुझको


तब ठाना ये मैंने न उड़ूँगी अब ऐसे
लौटूँगी वहां जहां बस मेरे है अपने
जो खुशी अपनों से है वो इसमें कहां है


लो फिर एक बार मैंने फटकारा था मन को
लेकिन देखो कैसा ये आजाद सा मन है
लो फिर उड़ चला ये लो फिर उड़ चला ये।
                                                       


तारीख: 16.07.2017                                    स्तुति पुरवार




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