क्षितिज की ओर निहारता,
वह मन ही मन मचलता रहा....
दूर कहीं धुंधली देख अपनी किस्मत,
वह बेवक्त उसे कोसता रहा.....
कभी खुद पर वह प्रश्नों के बाण चलाता,
कभी औरों को सूई की भांती चुभता रहा....
हार कर अंत में वह खुद से,
मन ही मन रोता रहा.....
पर तन कर एक पर्वत की तरह,
वह किस्मत से अपनी लड़ता रहा....
जो दर्द था उसकी ललाट पर,
वह धुंध की भांती छंटता रहा.....
चला था वह अकेला उस राह पर,
कारवां तो अपने आप ही बनता रहा.....।।