चक्षुओं का दोष है या सत्य भुवनोंं का यही,
हर घडी़ श्रृंगार को वीभत्स होते देखता हूँ !
रश्मि जिसकी बादलों को भेदकर भी न रुकींं,
तुषार से भी, धुन्ध से भी, द्वंद्व करके न थकींं;
उस तमतमाते सूर्य को अब अस्त होते देखता हूँ।
चक्षुओं का...........................................।
चाह में नवीनता की, व्यस्त रहती थी कभी,
प्राप्त हो प्रवीणता, सो नृत्य करती थी कभी;
उस सृष्टि की नृत्यांगना को पस्त होते देखता हूँँ।
चक्षुओं का.....…......................................।
वृष्टि हो, तूफ़ान हो, या भाद्रपद की रात्रि ही,
मझधार को भी चीरकर जो तीर लगती थी कभी;
उस नाव को, पतवार को छतिग्रस्त होते देखता हूँ।
चक्षुओं का….............................................।
जो सर्व था, सर्वोच्च था, जन्म -जीवन -नाश था,
राज्य जिसकी शक्तियों का ही कभी एक न्यास था;
उस धर्म को अब राज्य में ही न्यस्त होते देखता हूँ।
चक्षुओं का…............…...…........................।
समुदाय के निर्माण का, जो संविदा आधार थी,
जिन्दगी के जोखिमों, का उचित उपचार थी;
उस संविदा से ही स्वयं को त्रस्त होते देखता हूँ।
चक्षुओं का…...........................................।
साहित्य; वाद व विवाद से उपजा हुआ संवाद था,
लोक की आवाज़ था और राज का प्रतिवाद था
पर अब उसे बाज़ार का अभ्यस्त होते देखता हूँ।
चक्षुओं का…...........................................।
जो भीड़ में आवाज़ था, संगीत में सुर-ताल था,
हुड़दंग- में- मृदंग और ठनठनाती थाल था;
उस 'शोर' को एकांत में अब हृस्त होते देखता हूँ।
चक्षुओं का…...........................................।
प्यास रहती थी उसे तब नवरसों के पान की,
चाह रहती थी उसे अभिव्यक्ति की, पहचान की;
चाट करके ओस को ही तृप्त होते देखता हूँ!
चक्षुओं का….......................................।
आज तक मैं सत्य था या सत्यता है बाद की ?
तब प्राप्ति ही उद्देश्य था, अब होड़ रहती त्याग की
प्राप्ति को मैं पूर्व में ही नष्ट होते देखता हूँ !
चक्षुओं का दोष है या सत्य भुवनों का यही,
हर घड़ी श्रृंगार को वीभत्स होते देखता हूँ !