हर रोज कितनी ही दफा
झन्नाटेदार आवाज के साथ
टूटकर बिखरती हूँ।
फ़ैल जाती है अस्तित्व की किरचियॉ
यहां से वहाँ तक..
यही जीवन है।
समेट लेती हूँ खुद को
अपने ही जतन से..
और खड़ी हो जाती हूँ
एक बार फिर..
अपने ही पैरों पर..
टूटने बिखरने का सिलसिला
यूँ ही चलता रहता है।
जितनी बात भी समेटती हूँ
दरारें नही भरती....
उन दरारों में दर्द जमने लगा है।
मैल बनकर....
एक दिन मैल और
दरारें ही रह जायेंगे।
वुजूद तो शायद तब तक
धीरे धीरे दम तोड़ चूका होगा।