बरसों बाद जाना हुआ गांव
गांव में सङक बन गई थी,
बिजली आ गयी थी, नलके लग चूके थे
और
इस्कूल भी बन गया था
प्रगति की पुरवा पूरजोर खुश्बू बिखेरे मचल रही थी
अन्तरंग विकास की ब्यार में हिलौरे ले रहा था
और मैं
पुरानी रेल की एक पटरी पर
पुनः खुद को साधने के प्रयास में
पुराने खंडहरों तक निकल आया
और
जा बैठा
मेरे बचपन के मीत, मेरे पीपल के नीचे.......
मेरा पीपल, आज बङा उदास खङा था
तो पुछा मैंने,
क्या दादा, बङे कमजोर से लग रहे हो,
इतने खोये खोये क्यों हो,
गांव इतनी प्रगति कर रहा हैं
और
तुम हो कि,
शून्य में ताक रहे हो.....
पाकर मूझ से अपनत्व के बोल
पीपल जोर से हिला
और
मेरे कंधे पर अकस्मात ही आ गिरे
उसकी टहनियों से कुछ अश्रु बिंदु.....
मैंने चौंककर,
स्थिति को संभालने के प्रयास में कहा,
दादा, ये क्या, आप रो रहे हो
जरुर ही आप हर्षातिरेक में पलकें भीगो रहें हो
पर दादा खामोश रहे
और इस खामोशी ने मुझे विचलित कर दिया
मैंने मेरी सामर्थ्यनुसार,
दादा को बांहों में भरा
और पुछा
क्या बात है दद्दा......
तो दादा बोले,
मेरे बच्चे मूझ पर एक अहसान कर,
तोङ कर ये मेरा चबूतरा, मुझे नग्न कर दे
जिससे यहां पर बैठ कर कोई और प्रेम ना फले
और
काट कर मेरी हर शाख, मुझे विभत्स कर दे
ताकि मैं मोहब्बत के परवानों की अर्थी ना बन सकूं
दादा कि इस बात से,
इक सिहरन मुझमें बिजली बन कर कौंधी
मैं कुछ पूछता, इससे पहले दादा बोल पङे.....
बिटवा, इस विकास से मैं भी बहुत खुश था
हां, टीवी मोबाइल के साथ,
अब मेरे पास, नन्हें बच्चे आना छोङ चूके हैं
परन्तु
फिर भी मैं खुश था
क्योंकि,
प्रेमी जोङे, कुछ दिन पहले तक भी
गांव से दूर, इस बियाबान में,
मेरी छूपी छांव में आकर बतियाते थे
मैं हमेशा उन्हें शीतलता देता था
और
कोशिश करता था
कि
सूरज की एक भी किरण,
उनके प्रेम तक ना पहुंचने दूं
और
मैं और ये पुराना खंडहर
उनके प्रेम पर बलिहारी बलिहारी हो उठते थे.....
ये कह कर दादा,
कुछ खामोशी के बाद बोले......
अभी कुछ दिनों पहले की बात है
प्रेम कंवर और हरिया नाम थे उनके
प्रेम कंवर, प्रेम की मूरत थी
तो हरिया, ज्यों हरियाला सावन
दोनों जब हाथों में हाथ डालते
तो
ज्यों मेरी जङों को अमृत से सींच डालते
जब इस खंडहर में घुमते
तो
इसके कंगूरे फिर से जवान हो हो उठते
पर
इक दिन मैंने देखा
दोनों बहुत ही डरे हुए थे
लङकी रोये जा रही थी और हरिया गुमसुम बैठा था
मैंने पूछा, क्या हुआ बच्चों
तो हरिया बोला
दादा, हमारे घर वालों को पता चल गया है
और
हम दोनों कि जात अलग अलग है
वो हमें मार डालेंगे.......
मैंने कहा, अरे बिटवा
अब तो सब पढे लिखे लोग हैं,
इतना विकास हो चूका है,
अब कोई इन दकियानूसी बातों को मानता है भला
तुम निश्चिंत रहो,
और देखो, रोना बंद करो
अगर कोई आया,
तो, मैं तुम्हें मेरी शाखों में छुपा लूंगा
और
तुम चिंता मत करो,
अपना खंडहर भी यहीं है......
अभी बात चल ही रही थी,
तभी, अचानक
10-12 लोगों ने उन्हें घेर लिया
और पागलों की तरह मारने लगे
मैं और खंडहर चीखते रहे, चीखते रहे, चीखते रहे
ना तो मेरे पत्ते ही उन्हें छुपा पाये
ना इस अभागे खंडहर की पुरानी दरो-दिवारें
और
फिर, मैं सिहर ही उठा
जब वो अभागी घङी भी आयी
उन्होंने मेरी शाखों पर दो फंदे टांगे
मैं रोता रहा, मैं रोता रहा, मैं रोता रहा
मैं अभागा
ना तो उन्हें फंदा टांगने से रोक पाया
और
ना तो मेरी शाख को ही मुझसे जुदा कर पाया
और फिर,
गाङ दिया गया दोनों को
इसी खंडहर के पिछले कमरे में
बहुत रोये उस रोज हम दोनों
इस बियाबान में चीख चीख कर
मैंने मेरे सब पत्ते झाङ डाले
जीने की इच्छा ही ना रही बिटवा.....
मैंने इस खंडहर को भी बोला
कि
तूं खूद को नेस्तनाबूद क्यों नहीं कर लेता
कम से कम कब्र तो ना ढोयेगा
तो पगला कहता है
दद्दा,
मैं तो मर भी नहीं सकता,
अगर मैं गिर पङा
और
मेरे आंचल में सोये
इन अनगिनत प्रेमियों पर
अगर धूप आ लगी
तो
क्या जवाब दूंगा मैं खुदा को......
अरे तुम लोग उस ताजमहल को
प्रेम की निशानी कहते हो
जरा देखो, जरा देखो इधर
अगर मोहब्बत के बाजार में नीलामी निकले
तो
तुम्हारा ताजमहल सौ बार बिककर भी
मेरे छोटे की इक ईंट ना खरीद पाये......
जाओ बिटवा जाओ
खुब बिकास करो, खुब तरक्की करो
हम दोनों उस पुरातन में ही खुश हैं
जहां प्रेम ही तरक्की था और प्रेम ही विकास.....
बस बेटा बस
मुझे घिन आने लगी है, इस विकासवादी समाज में
दुर्गंध आती है मुझे, तुम्हारे समाजवादी ढकोसलों में
नफरत हो गई है, इस मानवजाति के दोगले मूखोंटों से
अब और नहीं
मैं तेरे हाथ जोङता हूं
मेरी इन शाखों को काट कर
मुझे विभत्स कर दे
अब मूझ में ताकत नहीं है
एक भी और विभत्सता सहने की......
और
कह कर टूट पङा
मेरा बचपन का साथी, आंसूओं के दरमियान.....
और मैं,
आज
निःशब्द था, खाली था, बदसूरत था......
शायद प्रेम रहित विकास पुरुष था......