चुप चुप से ये अल्फ़ाज़ कुछ तो कहना चाहते हैं।
अँधेरे के सन्नाटे में ... ये कानों में चिल्लाते हैं..
ये रात जो गहरी है.. आवाज़ देती है इन्हें ..
ये दबे पाँव आके नींद चुरा ले जाते हैं...
जज़्बातों की खामोश दुनिया में.. ये दिल का शोर सुनाते हैं..
कहें की सुन.....
अनजान ये दुनिया.. अनजान इस बेचैनी से..
अनजान इस दर्द से.. और उस छुपे राज़ की बेईमानी से....
इन्हें टूटना होता है... बिखरना होता है...
बिना किसी बात बस यूँ ही बरसना होता है...
पाकर मुझे अकेला फिर मुझसे बदला लेते हैं...
हाँ टूटते हैं... बिखरते हैं... न जाने क्या क्या कहते हैं...
चुप चुप से ये अल्फ़ाज़ कुछ तो कहना चाहते हैं...
क्यों मेरे पास आते हैं , क्यों मुझे ये सताते हैं...
सोने का बहाना जो हो.. तो मुझमें ही सो जाते हैं...
जो मन का फिर नज़ारा हो तो खुद में ही खो जाते हैं...
और फिर हर रात, ये मुझे यूँ डराते हैं...
उस दुनिया मैं ले जाते हैं.. फिर चीख के चिल्लाते हैं...
चुप चुप से ये अल्फ़ाज़ कुछ तो कहना चाहते हैं...
ये कुछ तो कहना चाहते हैं...