रो दिये वो उस पल जो... बातों को हमारे बिना समझे,
जागते रहें हम रातभर बस इस गम में, कि आखिर क्यों हम किसी की इतनी परवाह हैं करते।
उड़ान भरने को है व्याकुल मन, रिश्तों की जंजाल से…
कभी बहुत करीब से जाना जिन्हें, सबसे दूर खडे़ पाया है उनको,
सहारा तो बहुत दूर की बात, कई सवाल और इल्जाम ही हिस्से में आया है हमको।
सोच-समझ के बीच एक उम्र गुजर चुकी, अब खुद गुजर जाना बाकी है,
जिंदगी सिमट सी गई चंद रिश्तों में, बस खुद में सिमट जाना बाकी है।
कभी उन पर गुमां था, भरोसा था, तो खुद से भी मुहब्बत थी, हर सुबह रोशन थी, हर शाम निराली थी।
हर ख्वाहिश उनकी मानो जैसे मंजिल थी मेरी, हर इक खुशियाँ जैसे होली थी, दिवाली थी।
बसती थी खुशियाँ मेरे घर में, मेरे आंगन में, मुस्कराते हर कोने थे,
रंगीन थी दिवारें सभी, रौशन हर दरवाजे थे।
अब बस खुद में सिमट जाना बाकी है।