अपनों की खोज

 

लोग कहते हैं

मुस्कुराने से सब अपने हो जाते हैं

झुक जाने से रिश्ते संभल जाते हैं 

ज़्यादा मुस्कुराने से 

गालों में दर्द होने लगा

आँखों में लकीरें पड़ने लगीं

झुक कर चलने से 

कमर ही झुक गयी 

पीठ सबकी सीढ़ी बन गयी

अपनापन कम ही मिला

अधिकांश लोग चलते ही गए

चेहरे पर नक़ाब लिए

और सर के पीछे प्रभामंडल

अपनी ही आभा में मस्त 

धरती से एक फ़ुट ऊपर उड़ते

टेढ़ी नज़रों से देखते

मुझ जैसे तुच्छ प्राणियों को 

जो मुस्कुराते हाथ जोड़े झुक कर खड़े

ये देख प्रभामंडल का प्रकाश थोड़ा बढ़ जाता 

थोड़ा और ऊपर उड़ने लगते ज़मीन से 

और पीठ पर चढ़ आगे बढ़ जाते

नक़ाब के पीछे से भी दिख जाता

बढ़ा हुआ ग़ुरूर

कितनी ही कोशिशें कर लीं

अपनेपन की झलक भी ना दिखी 

लेकिन एक दो लोग मेरे जैसे भी मिले

मुस्कुराकर अपनापन खोजते

और बिना किसी जद्दोजहद

वे अपने हो गए जीवन भर के लिए 

तब समझ आया की जो मेरे लोग हैं

प्रभामंडल लिए नहीं उड़ेंगे

ज़मीन में ही दिखेंगे

मेरी तरह कुछ खोजते 

थोड़े विचलित लेकिन मुस्कुराते 

ख़ुद से ही लड़ने वाले 

पीठ में उनके भी पैरों के निशान होंगे

लेकिन आँखों में अपनापन 

चेहरे पे भाव होंगे थोड़े दर्द थोड़े ख़ुशी के

नक़ाब जो नहीं होंगे 

मुस्कुराना आदत ही बन गयी लेकिन अफ़सोस नहीं

सबक़ सीखा कि जीवन में कैसा नहीं बनना

और कहाँ अपनो को खोजना है 

और ये की दोनों पैर हमेशा ज़मीन में टिका चलना है   

और चलो इसी बहाने से 

बेवजह मुस्कुराना भी सीख ही लिया


तारीख: 23.09.2019                                    पूर्वा




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है