छूना मना है

जब छूने का माहौल कायम था 
तब व्यस्तता ने पत्थर का काम किया 
अब छूना मना है यह उपदेश दिए जा रहे हैं चहूंओर
जब स्पर्श की परिभाषा सरल थी 
तब लोगों ने जानना उचित नहीं समझा 
मैं एक फूल के पास जाती हूं सुगंध मांगने 
मिट्टी को नजदीक से छूना चाहती हूं 
थोड़ी कोमलता पाने के लिए 
नदी से कहती हूं कि दे दे उधार 
मुझे अपनी थोड़ी सी निर्मलता 
वृक्षों से हरापन चुराने का प्रयास करती हूं 
सूरज से बाहें फैलाकर मांगती हूं 
थोड़ी ऊर्जा थोड़ा तेज 
कुछ भी नहीं है पास सब ने अपनी विशेषताएं छिपा रखी है हमसे 
कुछ भी बांटना नहीं चाहते हैं वह 
शायद अब हम मित्र नहीं रह गए हैं
 मित्रता के सारे गुण तो कब से पीछे छोड़ आए हैं हम अब तो क्रूरता का चेहरा लिए 
चट्टान से निर्मम छुअन है हमारी 
कि जिसके पास भी जाएं डरावना सा चेहरा दिखता है हमारा
 अब तो केवल बचा है मनुष्यता का उधार
 जो हमको अपने भीतर से मांगना है
 कि फैल जाए फूलों की खुशबू 
मिट्टी की कोमलता 
निर्मलता नदी की 
ओज और तेज सूरज के....


तारीख: 14.04.2024                                    रामेश्वरी दास




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