झुकी देह, पिचके होंठों से निकलती हूक
विरोध में सज होकर निकलती आह
एक दबी-कुचली आवाज
उठती है साहस समेट
सहम को चिर आगे आती है
वो पाषाणों को छूती है
स्वयं को क्षति पहुँचा
गिर जाती है
ढह जाती है
विलीन हो जाती है
वैसे ही जैसे
सूखे पत्तों का भुरभुरा कर गिर जाना
रेत के घरोंदों का ढह जाना
बिजली का क्षणिक तड़पना
और विलीन हो जाना
काँपते हाथों और दहकते दिलों से
फिर-फिर निकलेगी हूक
फिर-फिर उठेगी साहस समेट
वही दबी-कुचली,
सहमी-क्षणिक आवाज
पर फिर-से दबेगी
और दबती चली जाएगी
झुकी देह थोड़ी ओर झुकती चली जाएगी
दबी आवाज थोड़ी ओर दबती चली जाएगी
सबसे बड़ा अपराध है इस समय
अन्याय के विरुद्ध
दबी कुचली आवाज का उठना
जो फिर उठेगी
काट दी जाएगी
सदा के लिए मौन हो जाएगी