हरियाली दिखती नही
सूख रहे सब फूल।
क्यूं बेशर्मी से हंस रहे
आंखो पर डाले धूल।
-करो धरती का हरित श्रृंगार
सब धुंआ धुंआ सा कर बैठे
पशु-पंछी ढूंढे आवास।
हरियाली यूं रुठ चली
ले जंगल से सन्यास।
-करो धरती का हरित श्रृंगार
कभी हरे भरे इस गांव मे
होती थी पीपल की छांव।
जल रहा हर पांव पांव
अब पत्थर हो गये गांव।
-करो धरती का हरित श्रृंगार
चहक महक सब छोड चले
संग हरियाली और गुल।
सजा रहे हम महलों को
लाकर कागज के फूल।
-करो धरती का हरित श्रृंगार
न तुम अंधे न हम अंधे
फिर अंधा कौन इंसान
क्यूं ठंड रहे इस आंगन मे
जब घर बना रेगिस्तान।
-करो धरती का हरित श्रृंगार