ऐ ग़ालिब तेरे शहर को ये हुआ क्या है
इसकी आँखों में दर्द,
दर्द में छुपा इक धुंआ सा है |
यहाँ अली और राम
साथ ही में बैठे हैं देखने मुशायरा
जहाँ नाचती है इंसानियत,
जिसके पैरों तले आसमां वीरां सा है |
यहीं से चलते हुए मौत कभी मंदिर
तो कभी मज़ार जा पहुंची,
मंदिर में जहाँ है सिर्फ मूरत यहाँ
मज़ार की दीवारों ने लहू छुआ-छुआ सा है|
हर ओर से आती है आवाज़
इस कमज़ोर मज़हब को बचाने की,
पर हत्यारे हैं हिन्दू,
पशु भी जात में कुछ मुसलमां सा है |
ज़िन्दगी महज़ कैमरे के पीछे से दिखती है मुझे,
जहाँ हर चेहरे पर सजी है इक मुस्कान
मुस्कान में छिपा है कुछ,
जो दिखता ज़रा सिसकियों सा है |
यूँ तो कमबख़्त सुबह आती नहीं
आये भी तो औरतों के कराहने की आवाज़ से,
हवाओं में घुला है उनके दर्द का मंज़र,
सूरज की किरणें करती वो दर्द कुछ बयाँ सा है |
हर आदमी का है इक मज़हब
और हर धर्म में हैं कुछ आदमख़ोर यहाँ,
सब के लब से रिस रहा है खूं,
पर वो दिखता महज़ इक इन्सां सा है |
परिंदे भी रहते हैं यहाँ
अब आबरू बचा कर अपनी,
लाशों से लदी है ज़मीं
पर इसी को कहते वे अपना गुलिस्तां सा है |
ऐ ग़ालिब तेरे शहर को ये हुआ क्या है
इसकी आँखों में है इक दर्द,
दर्द में छुपा कुछ इक धुंआ सा है |