जीवन के इस दोराहे पे

जीवन के इस दोराहे पर 
मुझको तो खुश होना था,
मन है अब भी क्यों व्यर्ग्र, 
रो तो लिया जितना रोना था।
बीत गया जब समय तम का, 
फिर तो नव - प्रकाश होना था?  

सही गलत का अब ज्ञान नहीं,
क्या करना करना था कुछ ध्यान नही,
जीवन में क्यों इतनी हलचल है ,
जब सब व्यवस्थित होना था ।
  
छोड़ी इस से पहले भी गलियां, 
छूटे हैं अपने साये भी।
हताश हुआ हूँ अब जाके, 
क्यों तुझे इतना "ख़ास" होना था। 

जीवन के इस दोराहे पे...


तारीख: 15.06.2017                                    सृजन अग्रवाल




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