कितनी बेबस हैं लोह-पथ-गामिनी (रेलगाड़ी)
की खिड़कियों से झांकती आंखें।
इन आंखों में अनगिनत प्रश्न उपस्थित हैं।
कितनी आशाएं कीर्तिमान हो रही हैं ।
अपने परिजनों से मिलन की उत्सुकता
ह्रदय को अधीर कर रही है।
परंतु कोरोना महामारी का भय
यह सोचने पर मजबूर कर रहा है,
कि कहीं अपने परिजनों को हम
भेंट स्वरूप कोरोना महामारी तो
प्रदान नहीं कर रहे?
यह बात लोह-पथ-गामिनी के इन
सहयात्रियों को व्यथित कर रही है।
मुख पर लगा मुखौटा(मास्क),
इनकी इस धारणा को बखूबी प्रदर्शित कर रहा है।
इन श्रमिकों, प्रवासी मजदूरों को
इस बात की अत्यंत खुशी है
कि एक अर्से के बाद
जिस रोटी की तलाश में वो परदेस गए थे।
आज उसी रोटी की अभिलाषा में
अपने गंतव्य प्रस्थान करेंगे।
रूखी सूखी खाकर ही,
अपनी जठराग्नि को शांत करेंगे।
“मजबूरी में मजदूरी की
मजबूरी में घर से निकले।
आज फिर मजबूरी में
मजदूरी छोड़ प्रवासी पहुंचेंगे।।”