कितना दुश्वार मेरी हयात का सफ़र रहा-ग़ज़ल

कितना दुश्वार मेरी हयात का सफ़र रहा

कितना दुश्वार मेरी हयात का सफ़र रहा
खुशी कभी मिली नहीं गम सदा मेरा हमसफ़र रहा

जिंदगी की राहों में कोई रहबर मिला न रहनुमा
मैं खुद ही अपना रहनुमा खुद ही अपना रहबर रहा

रोशनी थी पास में फिर भी उजालों की तलाश में
मैं इस गली से उस गली भटकता दरबदर रहा

सारी दुनियां वाकिफ़ थी मेरी मौत की खबर से मगर
बाख़बर होकर भी वो बेवफ़ा बेख़बर रहा

इक दिन थोड़ी-सी पी ली थी उनकी आंखों के मयखाने से
'नामचीन' नशा उस शराब का फिर हम पर उम्रभर रहा


तारीख: 18.04.2024                                    धर्वेन्द्र सिंह









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है