नारी


पढ़ा था बचपन मे देवी का स्वरूप
मैं ही समस्त धरा में ममत्व का रुप
जननी हूँ मैं जीवन का अटल स्रोत
प्रीतम पे वारी मैं प्रेम से ओत प्रोत
जानें कितनी गाथाएँ अनगिनत रचनाएं
मंदिर मंदिर हैं मेरी ही पावन प्रतिमाएं
किंतु सत्य विपरित मैं रही अभागी
बन राम की संगनी, गयी मैं त्यागी
दुःखो के भवसागर में, मैं डूबी अथाह
बन सती जनमन हेतु स्वीकारती चिता
नारी पूज्य जीवन जननी लगे मिथ्या
देव श्राप से पाषाण बनती मैं अहिल्या
लखन चले राम संग कुछ न कहती
मै सहर्ष विरह की अग्नि को सहती
वर्तमान में भी अस्तित्व की पुकार हूँ
सृजन में क्रीड़ामयी साज श्रंगार हूँ
प्रेयसी, भगनी, संगनी, माँ बनती
धूप की भांति मैं संबंधों में उतरती
अनायास जीवन मे आता प्रलाप है
भेदता शब्द, अभिशाप सा तलाक है
सुनना, सुन कर सबके मन का बुनना
मेरी नियति जन्म जन्म जीवन जनना
चारदीवारी में मौन सावित्री सी मैं अनूप
सौंदर्य संग पलती अनेक पीढ़ा कुरूप
हाँ मैं ही हूँ प्रेम, समर्पित ममता का रूप
पर मिथ्या सा लगता मैं हूँ देवी स्वरूप


तारीख: 01.11.2019                                    नीरज सक्सेना




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