शतरंज का दीवाना तो नहीं हूँ
लेकिन जब तुम रानी के वेश में
मंच के एक कोने से दूसरे कोने तक
अपनी बहकी सी चाल में
मेरी ओर कदम बढाती हो
गहरी सोच में तब तक उलझे तुम्हारे लब
सुलझ कर गुलाबों से जब खिलते हैं
किसी राज़ को छुपाती तुम्हारी आँखें
पास आकर चमक जब जाती हैं
तब, बस तब लगता है
शतरंज पर दिल आ गया मेरा
लगता है दिमाग का नहीं दिलों का खेल है
ज़िन्दगी से बिलकुल अलग नहीं
शतरंज से नफरत भी नहीं करता
पर जब कई रोमांचक लम्हों बाद
आखिर में चांदनी सी रानी
अमावसी राजा के करीब आ जाती है
और लगता है की एक रंगीन रात की शुरुआत होगी
अचानक से शह-मात का ताना सुनाई पड़ता है
और खेल ख़त्म हो जाता है
तब, बस तब लगता है
शतरंज दिलों का नहीं दिल टूटने का खेल है
हालांकि ज़िन्दगी से अब भी ज्यादा अलग नहीं