मंद पवन और शांत धरा में, भूचाल ये कैसा आया है!
विक्षिप्त सोच, कुंठित विचार का,कैसा रुप दिखाया है।।
लाखों स्वपनों के तिनके चुनकर,
अपना नीड़ बनाया होगा,
भविष्य की सारी उम्मीदों से,
उसने संसार सजाया होगा।
बेदाग गगन में उड़ने वाली, पंछी का पर यूँ जलाया है।
विक्षिप्त सोच, कुंठित विचार का,कैसा रुप दिखाया है।।
दिनभर की अपनी नीति बनाकर,
की उसने शुरुआत-सी होगी,
वो लाना है, ये पाना है,
या फिर माँ से बात ही होगी।
मृत्यु हो गयी सब स्वपनों की, निष्प्राण पडी़ ये काया है।
हे अधम! तूने विक्षिप्त सोच का कैसा रूप दिखाया है।।
प्राण किसी के हर ले जो,
वो शक्ति कहाँ से आती है,
कसमसाती, रक्तरंजित देह देखकर,
क्या तुझको दया नहीं आती है?
नष्ट हो गयी रूह भी तेरी, ऐसा पाप कमाया है।
दुर्बलता और निर्दयता का, कैसा रूप दिखाया है।।
महिला समाज की मजबूती है,
ये सत्य हमें स्वीकारना होगा,
कुंठित पुरुषों की ओछी शान को,
जड़मूल समेत निवारना होगा।
एक और 'रसीला' न होने पाए, शायद इसने ये चेताया है।
श्रद्धांजली यही होगी उसको ग़र, संकल्प ये मन में जाया है।।