व्यस्तता के जंजाल में क्यों इतना फंस जाते हैं,
दो घड़ी अपनों के संग बैठ भी ना पाते हैं।
कुर्सियों से आज की, वो घास का बिछौना अच्छा था,
हां चौपालों का वो दौर अच्छा था।
आज तो हम आसमां में भी उड़ान भर जाते हैं,
फिर भी अपनों से , बरसो मिल ना पाते हैं।
पक्की सड़कों से , वो कच्चा रास्ता अच्छा था,
हां बैलगाड़ी का वो दौर अच्छा था।
एक कोने से दूसरे कोने तक संदेशों को पहुंचा पाते है,
फिर भी अपनों से दिल की दो बातें ना कर पाते है।
की-बोर्ड से आज के, वो लकड़ी का कलम अच्छा था,
हां खतो का वो दौर अच्छा था।
कितने ही शिष्टाचार का हम बोलबाला करते हैं,
हाथ तो मिलाते हैं , पर दिल कहां मिल पाते हैं,
आज के हेलो से , वो नमस्ते अच्छा था।
हां चरण स्पर्श का वो दौर अच्छा था।
आज किस तरह के वचन हम पास रखते हैं,
जुंबा पर चासनी , पर अंदर कड़वाहट रखते हैं।
चिकनी-चुपड़ी बातों से,तो कड़वा सच अच्छा था।
हां अपनेपन का वो दौर अच्छा था।
पत्थर-पत्थर जोड़ कर हम मकान तो बना लेते हैं।
मगर क्या कभी हम उसको एक घर बना पाते हैं?
इन बड़ी इमारतों से, छोटा घर अच्छा था
हां वो कुटियो का वो दौर अच्छा था
सारी दुनिया को जगाने का हुनर हम आज रखते हैं,
मकान तो कर लिए रोशन,पर मन में अंधकार रखते हैं।
चमकते झूमर से,जुगनू का टिम टिमाना अच्छा था,
हां दीयों का वो दौर अच्छा था।
हां आज के दौर से ,पुराना दौर अच्छा था