हम 90 के दशक के आसपास के बच्चों का सर, घुटना, कोहनी फूटना आम बात था हमारी माओं के लिये।
हमारी माओं को हमारा उपचार बिलकुल भिन्न तरीके से आता था, घाव लेके प्रस्तुत होने पर सबसे पहले लात घुसें फिर डिटॉल और फिर उसके बाद तीन दिन तक बोरोलीन का नियमित सेवन। ऐसा करने से हमारे घाव आसानी से सुख जाते थे।
वैसे हमसे पहले तो ये और भी आम बात थी, हमारे बाप दादा तो ढेलाबाजी में निशानेबाज हुआ करते थे। ढेले से सर फोड़ना और फुड़वाना बिलकुल ही आम था उनके लिए। वैसे तब के खेल भी बड़े हिंसात्मक हुआ करते थे, "पिट्टो, कब्बडी, गुल्ली-डंडा, और सबसे भयंकर 'सेंका सेंकी'(गेंद से एक दूसरे को मारने का खेल)।"
वो तो घर भी नहीं आते थे "काण्ड" के बाद, उधर ही कहीं किसी काली माँ या बरहम बाबा के मंदिर से भभूति उठा के घाव का उपचार स्वयं कर लेते थे।
सबके सर में घुटने में कहीं न कहीं परमानेंट वाला एक दाग जरूर है। आजकल के बच्चों को ये सौभाग्य प्राप्त नहीं है, इन्हें मोबाइल और कंप्यूटर पर गेम खेलते वक़्त मुक्के पटकना, मुट्ठियां भीचना और बस बाल नोचना आता है। ये बाहर निकले घर से तो कोई इन्हें पहचाने भी नहीं। हमारा मोहल्ले में नाम होता था... "फलाना जी को कहना पड़ेगा, बहुत उपद्दर कर रहा है इ लड़का।" हमारे लिए हालाकिं एक तरह से ठीक ही है, फारम भरने में इसका सही इस्तेमाल होता है...
वुण्ड मार्क ऑन राईट नी..
वुण्ड मार्क ऑन फोरहैड..
सामने का आधा दांत गायब.. इत्यादि।
खैर हमे तो खेलते कूदते चोटें लगती थी, और आज के बच्चे.. हल्की सी खरोच पर रो रो के इलाहबाद का संगम बना देंगे। और एक हम थे.. ऊपर से मुक्के पड़ते थे और हम दवा पर "फ़ु फ़ु फ़ु..." करते थे।