अब कजरी के बस दिन ही आते हैं,
क्यों कजरी, कजरी नहीं गुनगुनाती ?
सावन कर देता है धरा को सराबोर,
क्यों बूंदें मन पर नहीं पड़ पाती ?
नीम खड़ा रहता है उदास सा अहाते में,
क्यों कोई गूजरी पींग नहीं बढ़ाती ?
बदरा देख सोच रहा नाचता मोर
क्यों मोरनी अब मिलने नहीं आती ?
लेता है करवटें हर मौसम अपने तय हिसाब से,
क्यों मौसम कोई भी हो, हमें नींद नहीं आती ?