शाम का अन्धकार चारों तरफ़ फ़ैल रहा है ।सूरज पहाड़ो के पीछे छूपता हुआ ऐसा प्रतीत हो रहा जैसे दिन भर थक कर कोई बच्चा अपनी माँ कि गोद मे सोना चाहता हो। शिप्रा आराम कुर्सी पर टेक लगाए बैठी है। चेहरे पर हल्की –हल्की झुर्रियों बालोंसे झाकती सफ़ेद लटे बोझल सी आंखें उस विह्गंम द्र्श्य को देखते देखते जैसे अतित मे खो जाती है ।
(कामोद का पहला स्पर्श पा जैसे शिप्रा को लगा दुनिया कि सारी खुशी उसकी झोली मे हो )
ससुराल का पहला दिन शिप्रा सजी धजी मानो सुन्दरता कि मुरत लग रही थी कामोद तो उसकि सुन्दरता को देख मन्द मन्द मुस्कराए रह ही नही पा रहा था। चारों तरफ़ बस यही अवाज़ कुछ भी हो व्रंद्दा जी बहु तो बहुत सुन्दर लाई हो । अन्धेरे मे भी उजाला कर दे ,देखना बस अब तो कामोद गया हाथ से ,व्रंदा जी थोड़ा सकुचाते हुए अपने भावों को छुपाने का प्रयत्न करति है पर शिप्रा कि आखें व्रंदा जी के चेहरे को पढ लेती है ।शिप्रा अपनी जिन्दगी मे आने वाले बदलाव के लिए खुद को जैसे अन्दर हि अन्दर तैयार करने लगती है शादी कि धूम-धाम और शिप्रा का हनीमून बीत जाने के बाद शिप्रा नए परिवार मे सामंजस्य बिठाने ,कामोद अपने आफ़िस के कामो मे ओर व्रंदा जी अपनी पुजा पाठ घुमने फ़िरने मे व्यस्त हो जाते है ।शिप्रा प्यार से कामोद को छेड़ति तुम अब पहले जैसा प्यार नही करते हो कितना समय हो गया हम कही साथ घुमने भी नही गए पर कामोद शिप्रा को काम का हवाला दे कर चुप करवा देता इस तरहा दो साल बीत गए ओर शिप्रा,ओर कामोद के घर एक नन्हे मेहमान ‘’प्रखर ‘’ का जन्म हुआ उसके आने से जैसे घर मे मानो बहार हि आ गई दादी को तो जैसे खिलौना हि मिल गया शिप्रा तो जैसे उसे देख रिझते नही थकती थी।
सारा दिन उसी के कामों मे खुद को व्यस्त रखति कामोद भी आफ़िस से आ बस उसकि दिनचर्या सुनता ओर उसी मे मस्त रहता धीरे-धीरे वक्त बितता गया ओर शिप्रा व कामोद के बीच कि दुरियां बढ्ति गई इधर कुछ सालों मे प्रखर ,शिखर,ओर सिमर का जन्म,शिप्रा का जीवन तो जैसे बच्चो ओर घर को समर्पित हो गया कभी कभी वो अपने अन्दर इक घुट्न सी मेहसुस करती पर बच्चो कि जिम्मेदारी ओर उनका उज्ज्वल भविष्य सब भुला देता है।धीरे-धीरे शिप्रा के चेहरे कि रौनक खत्म होने लगी बालों मे समय से पहले सफ़ेदी ,चेहरे पर व्रद्दा वस्था कि सी झलक नजर आने लगी कामोद भी कभी शिप्रा कि तरफ़ जी भर कर नही देखता कामोद को शिप्रा से एक शिकायत सी रहने लगी की वो उसकी जरुरतो का ध्यान नही रखती अब उसमे वो बात नही रहि शिप्रा मन हि मन खून का घुंट पी कर रह जाती एक घुट्न कि परत दर परत उस पर चढ्ने लगी मन को जैसे अन्दर से एक घुन सा लग गया बच्चे धीरे-धीरे बड़े होने लगे उन्हे भी अब शिप्रा कि जरुरत पहले जैसी न रही अपने मे मस्त रहते ,
शिप्रा जब भी आत्ममंथन करती खुद को निरिह अकेला पाती सोचती अपने मन कि थाह किसको दूँ । अन्दर हि अन्दर घुट्ते-घुट्ते वो एक अवक अवसाद सा झेलने लगी ।बड़े बेटे कि शादी के वक्त शिप्रा ने सोचा चलो उसे एक साथ मिल जाएगा पर बहु के आते ही प्रखर ने कहा कि हम लोग अलग रहना चाहते है ।शिप्रा को जैसे रेत कि तरहा हाथ से सब कुछ फ़िसलता नजर आया धीरे धीरे सभी बच्चे उस घरोंदे से निकल आज़ाद पंछी कि तरह उड़ गए व्रन्दा जी तो पहले ही स्वर्ग सिधार गई थी अब कामोद और शिप्रा जैसे दो अजनबीयों कि सी जिन्द्गी बीताने लगे जाने क्यो शिप्रा फिर कभी कामोद के करीब
न आ सकी गुम सुम सी जाने कौन से सदमों को बटोरती जाने जिन्दगी मे खो जाने वाले पलों को समेट्ती जाने कौन से स्वपन जो उधड़ कर उलझ गए उन्हे सुलझाति आखोंमे एक सुना पन लिए इस जीती जागती लाश से निजात पाने की चाह लिए शुन्य विराम सी उन बीते पलों से बाहर निकलती है ।देखती है सुरज तो कब का डूब चुका चारों तरफ़ घनघोर अन्धकार छा रहा है।एक आशंका लिए जाने कल कि सुबह होगी या यूँ ही अन्धकार रहेगा।