चाँदी का गिलास

“सर नमस्ते...।” 

“कौन?”

“सर...मैं हूँ...अमित...अमित खन्ना...क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ?” किवाड़ खोलकर अन्दर घुसते हुए वह बोला।

“आइए...पर...मैंने आपको पहचाना नहीं,” प्रोफेसर गुप्ता ने कहा।

“सर...मैं आपका पुराना छात्र हूँ...मैं, मनोज, शीला, सुरेन्द्र के बैच में था...याद कीजिए,” पैर छूते हुए उसने कहा। 

उसे सिर से पाँव तक देखकर और थोड़ा विचार करते हुए प्रोफेसर गुप्ता ने कहा, “ध्यान नहीं आ रहा...खैर कैसे हो?”

“सर मैं अच्छा हूँ...जब आप कॉलेज कैम्पस में रहते थे...तो मैं मनोज के साथ लगभग रोज़ ही आपके पास आया करता था...याद कीजिए,” उसने कहा। 

“आते तो बहुत लोग थे...लेकिन...खैर छोड़ो...क्या कर रहे हो आजकल यह बताओ?” प्रोफेसर गुप्ता शान्त भाव से बोले।

“बस सर...रोटी चल रही है...सोनू...मोनू कहाँ हैं आजकल?” उसने उत्तर के साथ प्रश्न भी दागा।

“सोनू नोयडा में और मोनू बंगलौर में...तुम कहाँ काम कर रहे हो?” प्रोफेसर गुप्ता ने जानना चाहा।

“सर...मैं...शहर में जो नया मॉल बना है...उसमें मैनेजर हूँ,” उसने कहा।

“अच्छा है...और घर, परिवार आदि कहाँ हैं?” प्रोफेसर गुप्ता ने पूछा।

“मैं कृष्णानगर में रहता हूँ। पत्नी है...एक बेटी है।” उसने थोड़ा रुकते हुए कहा।

“तो...आज अचानक यहाँ कैसे?” प्रोफेसर गुप्ता ने पूछा

“सर...म...मैं आपके पास एक आवश्यक कार्य से आया हूँ,” उसने हिचकते हुए कहा। 

“हाँ...बताओ किस काम से आए हो?” बहुत सहजता से प्रोफेसर गुप्ता ने पूछा।

“सर...मैं इस समय बहुत परेशान हूँ...मुझे कुछ पैसों की सहायता चाहिए।” उसने ससंकोच कहा। 

“क्यों क्या हुआ?” प्रोफेसर गुप्ता ने उसकी ओर गौर से देखते हुए पूछा।

“सर, मुझे बेटी की फीस भरनी है...वरना उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा...और मेरे पास...मुझे एक हजार रूपयों की आवश्यकता है। मैं दो-चार दिन में लौटा दूँगा...यह वायदा है,” वह एक साँस में बोल गया। 

“भई इतने पैसों का इंतज़ाम तो नहीं हो पाएगा। महीने का आखिर है...वैसे भी मैं तो पेंशन पर ही गुजारा कर रहा हूँ,“ गुप्ता जी ने विवशता प्रकट की। 

“अ...अच्छा...” वह हताश, निराश इधर-उधर देखकर बोला, “मैं पानी पी लूँ?” 

“हाँ...हाँ...क्यों नहीं...देखो जग में रखा होगा,“ टीवी की आवाज़ बढ़ाते हुए गुप्ता जी ने सहजता से कहा। 

उसने जग उठाकर पास ही रखे गिलास में पानी उड़ेलने के लिए जग झुकाया लेकिन उसमें पानी न पाकर वह बोला, “इसमें तो नहीं है...”

“ओह...तो अन्दर से फ्रिज में से बोतल निकाल लो।”

“अ...आंटी हैं क्या?” उसने हिचकते हुए कहा। 

“नहीं...वह तो बाजार गई हैं...पर कोई बात नहीं तुम अन्दर चले जाओ और फ्रिज से बोतल निकाल लो,” गुप्ता जी ने कहा।

“य...यह गिलास...इसी में पी लूँ?” उसने पूछा

“हाँ...हाँ...पी लो...”

“पर...यह तो...चाँदी का लगता है…”

“क्यों चाँदी के गिलास से प्यास नहीं बुझती क्या?” गुप्ता जी ने हँसते हुए पूछा।

“हा हा हा...ऐसी बात नहीं है सर...दरअसल यह आपका गिलास है...तो....” उसने गिलास उठाया और अन्दर चला गया। 

उसने फ्रिज से पानी की बोतल निकाली, गिलास में पानी लेकर पिया और अन्दर से ही बोला, “सर आप भी पिएँगे?”

“नहीं...तुम पी लो...” बाहर अपने कमरे में बैठे गुप्ता जी पर्स खोलते हुए बोले।

उसने पानी पिया। बोतल फ्रिज में रखी और बाहर ड्राइंग रूम में आकर यथास्थान बैठ गया। 

“सर...आजकल लेखन कार्य कैसा चल रहा है?” वह बातें करने लगा। 

“बहुत बढ़िया...कई किताबें निकल चुकी हैं। एक पत्रिका पिछले सात सालों से निकाल रहा हूँ,” पत्रिका का नया अंक देते हुए गुप्ता जी ने उसकी ओर पाँच सौ का नोट भी बढ़ा दिया, फिलहाल तो यह रख लो।

“अरे...सर...यह...रहने दीजिए न...” हिचकते हुए, लेकिन चमकीली आँखों से वह नोट झट से अपने हाथ में थाम लिया। 

“सर... आपके लेखन का तो मैं कालेज टाइम से फैन हूँ। आपकी स्पष्टवादिता मुझे सदैव प्रभावित करती रही है। आपकी यही खूबी आपको औरों से अलग करती है।...सर मैं आपको तीन-चार दिन में ये पैसे लौटा दूँगा,” वह कहने लगा।

“ठीक है...पहले तुम अपना काम कर लो...पैसे लौटाने की कोई जल्दी नहीं है,” गुप्ता जी ने टीवी से नजर हटाकर उसकी ओर देखते हुए कहा। 

“सर... मैं रोज़ यहाँ मंदिर दर्शन करने आता हूँ...कभी-कभी पत्नी और बेटी को भी ले आता हूँ। जल्दी ही किसी भी दिन...आपके पैसे लेकर आ जाऊँगा,” वह फिर बोला।

“चलो ठीक है...कोई बात नहीं...और बताओ मातापिता कैसे हैं?” गुप्ता जी ने उसे आश्वस्त करते हुए पूछा।

“मातापिता तो रहे नहीं...हाँ परिवार में एक बहन और एक भाई है जिनकी शादी का दायित्व भी मेरे ही ऊपर था। दोनों की शादियाँ कीं...काफी कर्ज़ भी हो गया है। वह भी धीरे-धीरे चुका रहा हूँ” उसके चेहरे पर परेशानी और चिन्ता के भाव आने लगे, “बहुत मुश्किल है इतनी मँहगाई में दस-पन्द्रह हजार में परिवार का खर्च चलाना।” 

“क्यों? भाई कुछ मदद नहीं करता क्या?” गुप्ता जी ने पूछा। 

“वह बेचारा कहाँ से करेगा? अक्सर तो बीमार रहता है। खुद के इलाज में ही पैसे लग जाते हैं। मैं तो उससे कुछ माँगता ही नहीं...कभी-कभी राशन का कुछ सामान ले आता है...अपना और अपनी पत्नी का खर्च चला रहा है यही बहुत है,” वह बोला।

“चलो यह भी अच्छा है,” गुप्ता जी फिर टीवी देखने लगे। 

“अच्छा सर...मैं चलता हूँ...पैसे मैं दो चार दिनों में दे जाऊँगा,” पैरों पर झुकते हुए उसने कहा।

“अरे ठीक है...ठीक है...खुश रहो,” गुप्ता जी ने आशीर्वाद में हाथ उठा दिया। 

वह शीघ्रता से कमरे से निकल कर सीढ़ियाँ उतर गया। गुप्ता जी टीवी देखने में लग गए।

लगभग एक घंटे बाद श्रीमती गुप्ता आ गईं। हाथ-मुँह धोकर गुप्ता जी के पास बैठ गईं। एक-एक करके बाजार से लाए सामान को दिखाने लगीं और बढ़ती मँहगाई पर चर्चा करने लगीं। अभी दो-चार बातें ही कर पाईं थीं कि उनकी दृष्टि सामने मेज पर पड़ी, “अरे आपका जग और गिलास कहाँ है...मैं यहीं रखकर गई थी” उन्होंने आश्चर्य से पूछा। 

“अन्दर होगा...देख लो,” किताब पढ़ते हुए गुप्ता जी ने कहा। 

श्रीमती गुप्ता तुरन्त अन्दर गईं, “जग तो यह रखा है...गिलास कहाँ है?” वे अन्दर से ही बोलीं।

“वहीं कहीं होगा...देख लो...डिस्टर्ब मत करो” किताब में रम चुके गुप्ता जी ने कहा। 

“मैंने हर तरफ ढूँढ़ लिया...बताओ न गिलास कहाँ है?” मिसेज गुप्ता की बेचैनी बढ़ने लगी।

“कह तो दिया वहीं कहीं देखो...उसने वहीं कहीं रखा होगा...चीखो मत,” गुप्ता जी ने थोड़ा ज़ोर से कहा।

“अरे मजाक समझ रहे हैं आप...चाँदी का गिलास था...पूरे सवा दो सौ ग्राम का...उसने किसने...कौन आया था?” आश्चर्यचकित होकर मिसेज गुप्ता ने पूछा।

“अरे! मेरा एक पुराना छात्र आया था...उसे प्यास लगी थी तो मैंने उसे अन्दर भेज दिया कि फ्रिज से पानी लेकर पी ले...तो वह मेरा गिलास भी अन्दर ले गया...वहीं रखा होगा,” गुप्ता जी ने किताब से नजरे हटाकर कहा। 

“क्या???” श्रीमती गुप्ता भौचक्की रह गईं, “अरे लेकर भाग गया...आपने तो हद कर दी।“

“नहीं...नहीं...भागा नहीं...मेरे पैर छूकर...आशीर्वाद लेकर गया है...बातें भी कीं उसने,” गुप्ता जी बहुत सहजता से बोले, “हो सकता है ले गया हो...मुझे लगा पानी पीकर वहीं रख दिया होगा...बेचारा बहुत परेशान था...मैने उसे पाँच सौ रुपये भी दिये।“ 

“हे भगवान्! यह आपने क्या किया? पता भी है आठ हजार से ज्यादा का गिलास था...मौसी जी ने दिया था आपको। आपने तो...आप इतने सज्जन क्यों हैं? मुझे क्या पता था कि...ऐसे तो एक दिन कोई आपको और घर को...ऐसे मैं कहीं जाऊँगी तो...आप तो पूरा घर लुटा देंगे। हद है आपसे...और ऊपर से पाँच सौ रुपये भी दिए...वाह क्या कहने। आप तो...” क्रोध-दुख- अफसोस और दया भाव से युक्त वाणी से श्रीमती गुप्ता बोल रही थीं।

प्रोफेसर गुप्ता किताब में रमे हुए सिर्फ इतना बोले, “पितृपक्ष चल रहे हैं...दान की चीज़ दान में गई...साथ में दक्षिणा भी दी...चलो अच्छा है।” और अपनी किताब के पन्नों में खो गये। 


तारीख: 09.06.2017                                    डॉ. लवलेश दत्त




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