मेट्रो वाली लड़की

 

रोज की तरह आज भी मैं मेट्रो में अकेले सफर करने वाला हूं। पहले मैं यह सफर अपने दोस्तों के साथ करता था तब यह 40 मिनट का सफर 4 मिनट जैसा लगता था लेकिन जब मैं अकेला होता हूं तो यही सफर 4 घंटे का प्रतीत होता है। लेकिन इस सफर को फिर से 4 मिनट का बनाने में मेरा साथ देतीं हैं मेरी हमसफ़र मेरी किताबें, मेरी कहानियां।

आज का सफर भी मेरा कुछ ऐसा ही है। मैं हूं और मेरे साथ में है कोई एक नॉवेल, मेरी एक और कहानी। अभी मैं विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पर हूं, यहां से मुझे अक्सर मेट्रो में सीट मिल जाती है इसलिए क्योंकि यहां से कुछ मेट्रो रिटर्न होती हैं। 
स्टेशन पर मेट्रो आकर लगती है, दरवाजे खुलते हैं मैं मेट्रो में अंदर उस सीट पर जाकर बैठ जाता हूं जो किसी के लिए आरक्षित नही होती। मैं अपनी सीट पर बैठ कर अपने बैग को पैरो के पास रखकर और अपनी कहानी शुरू करता हूं। मैं हिंदी नॉवेल पढ़ना पसंद करता हूं ये मैं इसलिए आपको बता रहा हूं क्योंकि आपको मेट्रो में सफर करते अक्सर कुछ तथाकथित 'एलीट क्लास' के लोग मिल जाएंगे जो आपको हिंदी की किताबें पढ़ते या हिंदी में कहानियां पढ़ते ऐसी नजर से देखेंगे जैसे कि हिंदी पढ़ने वाले गवार ही होते है और ऐसा मुह बिचकाते है जैसे वो बड़े ज्ञानी हो और आप मुर्ख। खैर, ऐसा एक बार मैंने एक बड़े लेखक को यह कहते सुना है कि एक बार कानपुर आईआईटी में उनका वास्ता एक ऐसी लड़की से हुआ जो उनकी नॉवेल की 2 प्रतियां रखती थी एक हिंदी की और दूसरी इंग्लिश की। इंग्लिश वाली कॉलेज में पढ़ने के लिए या यह कहें दिखाने के लिए और हिंदी वाली प्रति घर पर पढ़ने के लिए या ये कहे कहानी को समझने के लिए।

मैं अपने बारे में कहूँ तो "मुझे हिंदी समझ में आती है और हिंदी को मैं, और हम दोनों को एक दूसरे का यह साथ अच्छा लगता है"

खैर, अभी मैं अपने नॉवेल में सुधा और चंदर की कहानी में ऐसे खोया हूआ था कि मुझे वह रास्ते में पड़ने वाले 7 स्टेशन जो राजीव चौक तक पहुंचने में आते हैं जिनके बीच में लगने वाला दो-दो मिनट का समय मुझे 2 घंटे का लगता है वह आज मुझे पता नहीं चल रहा। 
सुधा और चंदर की मुलाकात एक रेस्टोरेंट में होने वाली है, सुधा चंदर को फोन करके रेस्टोरेंट का एड्रेस बताती है और वहां आने को कहती है ठीक 3:00 बजे। चंदर रेस्टोरेंट पहुंच चुका है लेकिन उसका फोन स्विच ऑफ है और वह सुधा को कॉल नही कर पा रहा है रेस्टोरेंट का नाम याद नहीं आ रहा है और वह उस जगह पर पहुंचकर वहां के सब रेस्टोरेंट में जाकर सुधा को ढूंढ रहा है तभी उसे पीछे से आवाज सुनाई देती है, 
"हेलो, मैं यहां हूं"
पीछे मुड़कर देखता है सुधा बोल रही होती है । 
तभी मुझे मेट्रो की अनाउंसमेंट सुनाई देती है 
"अगला स्टेशन राजीव चौक है, दरवाजे दायीं तरफ खुलेंगे कृपया सावधानी से उतरे"। 
मैं एक हाथ में अपनी नावेल लिए दूसरे हाथ से बैग उठाता हूं और गेट पर जाकर खड़ा हो जाता हूं। 

राजीव चौक स्टेशन पर दरवाजे खुलते हैं, हमेशा की तरह आज भी यहां बहुत भीड़ है, मैं सीढ़ियों से ऊपर ब्लू लाइन पर नोएडा की मेट्रो के लिए ऊपर जाता हूं और वहां जाकर आगे की लाइन में जहां करीब मेट्रो की दूसरी या तीसरी बोगी आकर लगती है ,खड़ा हो जाता हूँ ।वहां सीट तो नहीं मिलती लेकिन खड़े होने की जगह मिल जाती है। 

मुझे पता है कि मुझे सीट नहीं मिलेगी इसलिए मैं ऐसी जगह चुनता हूं जहां खड़े होकर पढ़ते वक्त मुझे कोई डिस्टर्ब ना करें। मेट्रो के दरवाजे जिधर खुल रहे हैं उसके दूसरी तरफ के दरवाजे के पास मैं अपना बैग रखता हूं वहां बगल में लगे हैंडल और कांच से टिक कर खड़ा हो जाता हूं और अपनी कहानी पढ़ने लगता हूं। 

भीड़ बहुत है, हमेशा की तरह। मैं अपनी कहानी में खोया हुआ हूं कि तभी मुझे महसूस होता है कि कोई झूक के मेरी किताब का कवर पेज देखना चाह रहा है, मैं किताब को थोड़ा ऊपर उठाता हूं वह कवर पेज पर नाम पढ़ती है और बड़े अदब से कहती है "मुसाफिर कैफ़े, अच्छी है" कहकर मुझे एक स्माइल देकर कैरी ऑन कहती है। 

'अच्छा लगता है मुझे' ,इसलिए कि वह लड़की है और इसलिए भी कि शायद यह पहली है जिसने मुझे मेट्रो में हिंदी नावेल पढ़ते देख ऐसी प्रतिक्रिया दिया हो।

मुझे पता नहीँ क्यों ऐसा लगता है जैसे कि यह नजरें विश्वविद्यालय स्टेशन से मेरा पीछा कर रही है। 
करीब साढ़े पांच फीट लंबा शरीर, दूधिया बदन, बड़ी बड़ी आँखे, लंबी नुकीली नाक, नाकों के नीचे अंडरलाइन करती हुई पतले गुलाबी होठ। चेहरे पर हल्की थकान लिए वो फॉर्मल ड्रेस में पैरो में काले जूते(ऑफिसियल), पीठ पर एक डैल का लैपटॉप बैग और हाथ में एक कोई नावेल 'हिंदी नॉवेल' लिए मेरे सामने खड़ी है।

अब मेरा ध्यान बट गया है थोड़ा सुधा और चंदर की कहानी में और थोड़ा अब शायद अपनी कहानी में, मैं हर एक पैराग्राफ पढ़ने के बाद ना चाहते हुए भी उसे देखता हूं, वो भी मेरी तरफ देख रही है करीब उसी अंतराल पर जब मैं।

दिल्ली, 'देश की राजधानी' ऐसी जगह है जहां पुरे भारत के लोग कम या ज्यादा मात्रा में हैं जिसमे उत्तर भारतीयों या कह लें हिंदी भाषी लोगों की अधिकता है और दिल्ली मेट्रो ऐसे सभी लोगों को एक पास देखे जाने की प्राथमिकता बढ़ा देती है। फिर भी हिंदी पढ़ने वालों की संख्या देखने को कम मिलती है। खैर,
 
थोड़ा आगे बढ़ने पर जब मेट्रो में सीट खाली होती है तो मैं खुद बैठने की जगह है उसे ऑफर करता हूं मगर वह एक स्माइल के साथ मना कर देती है और मुझे बैठने को कहती है, मैं बैठ जाता हूं। 

आगे चलकर मेरे सामने वाली सीट खाली होती है और वह भी बैठ जाती है। 
अब हमारी बातें हो रही हैं लेकिन सिर्फ आंखों से। करीब हर एक पैराग्राफ पढ़ने के बाद नज़र ऊपर करके मैं उसे देखता हूँ और वो अपने मोबाइल से नज़रे बचा मुझे।
मेरे बगल में एक कपल, हस्बैंड वाइफ है और उनका एक करीब 4 साल बच्चा है जो वहाँ बैठे सबको अपनी प्यारी बचकानी हरकतों से हँसा रहा है। मुझे भी अच्छा लग रहा है बच्चे पर प्यार आ रहा है लेकिन इससे ज्यादा अच्छा लग रहा है कि वह उस बच्चे को देख कर मुस्कुरा रही है, और कभी कभी मुस्कुराकर मेरी तरफ भी देख ले रही है।

वह थोड़ा शर्मा रही है और मैं थोड़ा हिचक रहा हूं शायद वह भी चाहती है मुझसे बात करना और मैं भी। 

कहानी पढ़ते और उसे देखते देखते मेरा स्टेशन आ जाता है और जैसा कि हम करते हैं स्टेशन पर उतरने से पहले हम मेट्रो में अंदर ही अंदर बोगी चेंज कर लेते हैं जिससे की उतर कर सीढ़ियों तक जाने के लिए हमें ज्यादा ना चलना पड़े। 
मैं भी ऐसा ही करता हूं और वो भी मेरे आगे आगे चल रही है शायद उसे भी यही उतरना है। 

अब मेट्रो से उतर कर प्लेटफार्म पर हम दोनों धीरे-धीरे चल रहे है। अभी मैं आगे हूं और वो मेरे पीछे। शायद यह सोच के कि कुछ बातें हो वह मेरे पीछे पीछे आ रही है, मैं थोड़ा घबराया हुआ हूँ मैं चाहता हूं वह मुझे क्रॉस करें और आगे निकल जाये लेकिन वो भी बहुत धीरे चल रही है। 

हम दोनों सीढ़ियों पर होते हैं तभी पीछे से आवाज देती है, 
"तुम नर्वस हो क्या"

"नहीं तो, क्यों क्या हुआ आईएम फाइन" मैं थोड़ा हिचकते हुए जवाब देता हूँ क्योंकि उसके इस वक़्त इस सवाल के की आशा मुझे नहीं होती है।

"तो तुम उतरते वक्त बोगी चेंज करते करते, मेरे पीछे-पीछे लेडीज बोगी तक क्यों आ गए थे?" वो बोलती है

मैं हंसने लगता हूं और वो भी।
वो अपना हाथ आगे बढाती है 
"हाय, आएम प्रिया" 

"अंकुर" 
मैं भी एक हल्की स्माइल के साथ हाथ मिलाते हुए उसे अपना नाम बताता हूँ

"नाइस नेम" वो बोलती है

"थैंक्स" मै उसे जवाब देता हूँ।

अभी मेरी दिल की धड़कन अपनी 'स्पीड लिमिट' के दोगुने गति से चल रही है। हम मेट्रो से एग्जिट करते हैं और हमारा एक दूसरे से परिचय होता है। वह बताती है कि वह किसी मल्टीनेशनल कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है जैसा कि उसके ड्रेस से भी लग रहा है कि वह किसी कॉर्पोरेट कंपनी की एम्प्लॉयी है

"तुम क्या करते हो?" वो पूछती है

"मैं, मैं राइटर हूं, कहानियां लिखता हूं" मैं उसे बताता हूँ
 
"ओह्ह, गुड, वैसे कैसी कहानियां लिखते हो तुम" वो फिर पूछती है

"वास्तविक कहानियां" मैं बताता हूँ

"वास्तविक!" वो अपनी भौहें चढ़ा के प्रश्नवाचक मुद्रा में फिर से पूछती है

"काल्पनिक क्यों नहीं ,तुम्हें कल्पना में विश्वास नहीं है" वो पूछती है

"नहीं, ऐसा नही है कि कल्पना में विश्वास नहीं है लेकिन मैं वह लिखना पसंद करता हूं जिसे मैं जीता हूं या यूं कहें जिसे पाठक पढ़ते वक्त जीता हो" मैं उसे बताता हूँ

"अच्छा है, तो तुम एक राइटर हो। मैंने सुना है राइटर दिल के बहुत अच्छे होते हैं" 
वो हल्की सी मुस्कुराहट के साथ पूछती है।

"हो सकता है, मैं अब अपने बारे में ऐसा कैसे कहूं" मैं उससे कहता हूँ

फिर हम बात करते करते ऑटो तक आ जाते हैं। उसे भी सेक्टर 82 ही जाना है और मुझे भी।

रात के 9:30 बज रहे हैं सिर्फ एक ऑटो है वहाँ। हम शेयर करके ऑटो से चलने को कहते है वो हमें बैठा कर चल देता है।
हमारा एक दूसरे से परिचय चल रहा है बातें हो रही हैं। करीब आधे रास्ते में हम पहुंच चुके हैं तभी ऑटो खराब हो जाती है। रात हो जाने की वजह से कोई और ऑटो दिख नहीं रहा और दूरी बहुत नहीं है, इसलिए हम पैदल चलने का सोचते हैं, 
वह कहती है 
"तुम अपनी कोई कहानी ही सुना दो, रास्ते कट जाएंगे" 

मैं उसे दो कहानियां सुनाता हूं। उसे अच्छा लगता है, वह कहानियों में खोई हुई है और हम यूँही बाते करते सेक्टर के गेट तक आ जाते हैं। 

उसे कहानियां सुनना अच्छा लग रहा है शायद इसलिए कि अभी वह अपने कॉरपोरेट लाइफ से थोड़ी दूर कहानियों के साथ कहानियों की दुनिया में है जो बेशक हमारी भागदौड़ भरी लाइफ से थोड़ी अलग है और सुकून भी दे रही हैं । 

उसे मेरी कहानियां अच्छी लगती हैं और शायद मैं भी। 
"अगली बार अपनी कहानियां कब सुना रहे हो" वो पूछती है

" 'स्टोरिमिरर' नाम की वेबसाइट पर तुम मेरी कहानियां पढ़ सकती हो" मैं उससे कहता हूँ

"मैंने पूछा, कब सुना रहे हो?"
वो 'कब सुना रहे हो' पर थोड़ा जोर देकर कहती है।

" बेशक मुझे कहानियां पढ़ना बहुत पसंद है लेकिन इतना टाइम कहाँ मिल पाता है कि कहानियां पढ़ी जाएँ। वैसे तुम कहानियां अच्छी सुनातें हो" वो मुस्कुराते हुए मुझे देख रही है और मैं उसकी ओर।

मैं उसे क्या जवाब देता। 
वैसे कोई खूबसूरत लड़की ऐसे तारीफ करे तो कुछ पल के लिए जवाब का ना होना, हो ही जाता है।

"जब तुम सुनना चाहो, सुना देंगे" मैं उससे कहता हूँ।
 
हमारा नंबर एक्सचेंज होता है, वो एक स्माइल के साथ  
"सी यू ऑन व्हाटसप, बॉय "
कह कर अपने घर को चली जाती है। और मैं परचून की दुकान से कुछ सामान लेने के लिए चला जाता हूं। 

घर जाता हूं खाना खाता हूं और फोन उठाकर व्हाट्सएप्प से उसे "हाय" मैसेज करता हूं। रिप्लाई तुरंत आता है "हेलो" जैसे वह मेरे मैसेज का इंतजार कर रही हो। 
हम दोनों की बातें होने लगती हैं काफी सारी बातें होती हैं, फिर वह कहती है 
"तुम कहानियां अच्छी लिखते हो और मैं तुम्हारी कहानियां पढ़ना नहीं तुम से सुनना ज्यादा पसंद करूंगी, खैर तुम वास्तविक कहानियां लिखते हो तो मुझ पर भी कोई कहानी लिखना" 

मैं कहता हूं "लिखूंगा,पर अभी एक कहानी लिख रहा हूं वह पूरी होने के बाद" 
वह हंसने लगती है कहती है "सच में मेरे ऊपर भी कहानी लिखोगे" 

"तुम्हारे ऊपर नही 'हमारे' ऊपर" मैं कहता हूँ तो वो हँसने लगती है।
 
"सुनाओ क्या लिख रहे हो अभी" 
मैं उससे बताता हूं कि मैं एक ऐसी लड़की की कहानी लिख रहा हूं जिसे मैं जानता नहीं, सिर्फ उसकी आवाज सुनी है मैंने, उसको देखा नहीं है"

"हां! सच में? तो क्या लिख रहे हो जब जानते ही नही उसे कि है कौन वो" थोड़ी उत्सुक है जानने को यह लड़की है कौन।
मैं उसे बताता हूं कि वह मेरे सामने वाले फ्लैट में रहती है मैंने उसे कभी देखा नहीं है, वह क्या करती है मैं जानता नहीं हूं लेकिन मैंने उसकी आवाज सुनी है। 
हर रोज सुबह 6 बजे जब अखबार वाला अखबार फेककर जाता है तब वह सो रही होती है और मैं चुपके से रोज उसका अखबार चुरा लेता हूं और फिर आकर सो जाता हूँ। फिर करीब 8:00 बजे जब वह सो कर उठती है और अपना अख़बार नहीं पाती है तो चिल्लाती है और उसकी आवाज सुनकर मैं उठता हूँ। मेरे लिए वो अलार्म का काम करती है हाहाहाहा, मुझे अच्छा लगता है उसका यह चिल्लाना या यूं कहें उसकी आवाज। खैर, कहानी पूरी लिखकर मैं तुम्हें सुनाऊंगा । 

वह हंसने लगती है और कहती है 
"अब रात बहुत हो गई है तुम सो जाओ कल मिलते हैं"

मैं सुबह 6:00 बजे का अलार्म लगा कर फिर सो जाता हूं। रोज की तरह आज भी सुबह जब अलार्म बजता है  मैं उठता हूं और आंखें मलता हुआ आधी नींद में जाकर दरवाजा खोलता हूं और अख़बार उठाकर दरवाजा बंद कर रहा होता हूं तभी मुझे ऐसा लगता है कि सामने वाले फ्लैट का दरवाजा खुला हुआ है और कोई मुझे देख रहा है नजरें ऊपर उठाता हूं तो सामने खड़ी होती है "प्रिया"

मैं पीछे मुड़कर भागता हूं यह सोचकर कि आज तो मेरी चोरी पकड़ी गई और वह हंसकर दरवाजा बंद कर लेती है शायद यह सोचकर कि अगली कहानी उस पर ही लिखी जा रही है।


तारीख: 23.08.2019                                    शुभम सिंह









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है