दिल्ली, हम और METRO

ख़ैर odd-even खत्म हुआ और हम मेट्रो की गेट के सामने खड़ी भीड़ को देख कर हिम्मत हार चुके थे और लग रहा था जैसे रोज़ की जंग में खुद को prove करने का समय आ गया है। तीन मेट्रो गवाने के बाद किसी तरह हिम्मत कर के आगे तक पहुंचे। लगा की कुछ पा लिया है ज़िन्दगी में। थोड़ी देर में अगली मेट्रो आई और हमने खुद की ऐसे ढीला छोड़ा जैसे कोई पतंग को हवा के भरोसे छोड़ देता है। थोड़ी देर में हम अंदर कहीं अटके हुए थे और कुछ लोग अब अब भी बिना हार माने जद्दोज़हद कर रहे थे। एक खूबसूरत महिला ने ऐलान किया की "अगला स्टेशन यमुना बैंक है" और थोड़ी देर में मेट्रो खाली हो गयी। 

हम अब भी Papon के गानो में मगन थे. सामने एक प्रेमी युगल अपने प्रेम का प्रदर्शन कर रहा था और कुछ मजदूर उनको ऐसे देख रहे थे जैसे नंगी आँखों से video recording कर रहे हों। एक बुज़ुर्ग छिप कर देख रहे थे और मैंने उनको देखते हुए देख लिया। किसी ने सच ही कहा है की " कोई देखते हुए देख ले तो कैसा लगता है"। गौरतलब है की इस बीच मेरा भी ध्यान उस प्रेमी जोड़े पर जा रहा था। ठरकी मन। कंट्रोल होता भी कैसे ? 18 साल तक बिहार में पली बड़ी आँखें दिल्ली के चार साल के माहौल में अभी भी फटे दूध की तरह थी जो की निम्बू से मिल कर ना छाछ बनाता है और ना ही कॉफ़ी। 

कानों में Papon कह रहा था की " क्या आये हैं ढूंढने , क्या छोड़ आये हैं , कौन क्या कहना चाहे , कौन कह रहा है, शोर में सब गुम है......" पर ये क्या ? हम तो खुद को उस लड़के की जगह पर रख चुके थे। मन में बात आगे बढ़ चुकी थी, लग रहा था जैसे मेरे साथ भी कोई खूबसूरत सी लड़की मरे गले में हाथ डाले हॅंस कर बात कर रही है। हम दिल्ली की मेट्रो में हज़ार लोगों की भीड़ में खड़े मुंगेरी लाल जैसे हसीन सपने देख रहे थे। दिल्ली तो हमारी हो गयी थी मगर हम पूरी तरह से दिल्ली वाले नहीं हुए थे।

यमुना बैंक से मेट्रो चलने वाली थी और हम इतनी देर में इतना कुछ सोच चुके थे। लगा कि जैसे थोड़ी देर के लिए हमने अपने frustration को फ्लश कर दिया था, और असल में बात यह थी की " अच्छा लग रहा था "। हमें लगता है की हर कोई सपने देखता है ( बात अलग है की हर कोई उनको समय दे कर keyboard पर मेहनत नहीं करता)। इसी बीच में फिर से उस बुज़ुर्ग आदमी की नज़र हमसे मिल गयी। वो नज़रें बचा कर दूसरी तरफ देखने लगे , जैसे की वो उनको देख ही नहीं रहे थे (हमसे बचते कैसे , हम बिहारी बाबू हैं जो उड़ती चिड़ियों के पर गिन लेते हैं)। हमें लगा की इस बार वो देखते रहेंगे मगर ठीक उल्टा हुआ और वो इधर उधर नज़र घुमाने लगे। 

अगर चाय में एक बार biscuit घुल कर गिर जाये तो कभी उसको दूसरी biscuit से नहीं उठाना चाहिए क्यूंकि दूसरी biscuit भी उसी में घुल जाती है और हम ऐसे मोड़ पे बेवक़ूफ़ दिखते हैं। अंत में ये होता है की चाय के साथ पूरी biscuit का घोल पीना पड़ता है। लग रहा था जैसे अंकल ने इधर उधर देख कर अब वो घोल बना दिया है।

ख़ैर फिर से हम अपनी सोच में आगे बढ़े और देखा की अगले स्टेशन पे एक फ़ौज़ खड़ी है जिसका कोई uniform नहीं है , हर आदमी अलग अलग उम्र का है और अंदर आने के लिए अपनी शक्ति जुटा रहा है। भीड़ ज्यादा होने पर कुछ लोग दिक्कत में थे और कुछ लोग ज्यादा पास आ कर बहुत खुश थे। हमने खुद को अपनी जगह से दूर किसी कोने में खड़ा पाया. एक दो बार सर उठा कर देखने की कोशिश भी की उस couple को, मगर कुछ गंजे सिर और dandruff वाले बाल हीं दिखे। कुछ देर बाद नॉएडा आ गया और फिर से भीड़ के आगे हमने खुद को छोड़ दिया और automatic mode से गेट से बहार आ गए। 

हम स्टेशन से बाहर निकल कर "ऑफिस ऑफिस" खेलने के लिए तैयार थे और कानों में Nusrat साहब कह रहे थे, " मस्त मस्त मस्त , सारा जहान मस्त, दिन मस्त रात मस्त , सुबह मस्त शाम मस्त..... " और सामने से वो अंकल मुस्कुराते हुए निकल रहे थे।                                           


तारीख: 10.06.2017                                    मनीष शाण्डिल्य




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