राहुल झा की कहानी सीरीज ' प्यार के इस रांदेवू (rendezvous) में ' के अंतर्गत दूसरी कहानी
गलतियां उसी दिन होना शुरू हो गयी थीं,जब हमारे पिताजी को पता चला कि घर में तीसरी बार भी बेटी ही जन्म लेने वाली है। यूँ तो पिताजी काशी के अस्सी घाट पर जजमानी करते थे,दूसरे शब्दों में काल के प्रकोप से लोगों को डरा कर अपने कल के खाने का इंतज़ाम करते थे। पर जब डाक्टरनी ने कहा कि इस बार भी बेटी होने की उम्मीद ज्यादा है,पिताजी का शक यकीन में बदल गया,कि पिछले जन्मो में किये होंगे कोई पाप,जिनके कारण तीसरी बार भी एक लड़की का ही बनना पड़ेगा बाप।
खैर जो होना था हुआ,हमारा जन्म भी। पर रंग के सफेद होने के फायदे और दुकानो पर लगी 'फेयरनेस क्रीम' के खरीदारों की लंबी कतारों ने एक बात कि पुष्टि कर दी कि रंग अगर है साफ़,तो तुम्हारा बाप भी करता रहेगा तुमको माफ़। हमारे धर्म के ही जैसे थोप दिया गया हमारे ऊपर एक नाम। दुर्गा कहते हैं लोग हमको। नानी की बातों से आभास हुआ कि पिताजी किस दर्ज़े के गिरे हुए इन्सान थे और दोगलापन कैसे उनके खून के संचार के साथ सर में घूमता रहता था। वो कहती थीं " ई पांडितवा हमर बेटी के पेट में पलइत लड़की के त~ गिरा दई छय,आ दुर्गा पूजा में कन्या पूजन कइरक~ पुरहित बनई के ढोंग करई यै सरबा।"
बहुत कुछ बुरा,तो काफी कुछ अच्छा भी हो रहा था ज़िन्दगी में। गाना है ना,"ज़िन्दगी, कैसी है पहेली हाय। कभी ये हँसाए,कभी ये रुलाए।" वैसी ही कुछ चल रही थी ज़िन्दगी। दस साल की उम्र में घर पर विराजमान ग्यारह ग्यारह लोगों का खाना बनाने से लेकर,बारह का होते होते,घाट पर शाम की गंगा आरती,पब्लिक डिमांड पर गाने तक। छोटी उम्र ने और अपने आस पास के लोगों के बर्ताव ने बहुत कुछ सिखाया। सत्रह के हुए तो बी.एच.यू. में हिंदी साहित्य में स्नातक की डिग्री के लिए दाखिला भी मिल गया।
यहाँ मुलाकात हुई ज़ाहिरा से। वो उर्दू साहित्य की दीवानी थी,और हम उसकी उर्दू के। वो घाट पर बैठ कर जब नज़्में सुनाया करती थी,तो एक बार को अनंतकाल से बहती आ रही गंगा भी मानो बगल वाली कुरसी पर उसको सुनने के लिए बैठ जाती थी। और उन नज़्मों में सबसे खूबसूरत थी,फैज़ अहमद फैज़ साहब की "वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे,जो इश्क़ को काम समझते थे,या काम से आशिकी करते थे। हम जीते जी मसरूफ रहे,कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया "। आदत हो गयी थी।
आदत सुबह के सूरज को उगता देखने की। आदत,घाट पर ज़ाहिरा के साथ नीम्बू वाली चाय पीने की। आदत,हर शाम नाव पर बैठ,एक दूसरे की शायरी सुनने की। आदत खुद से प्यार करने की। आदत,ज़ाहिरा को एक नज़र देख भर लेने की। पता नहीं कब प्यार हो गया उससे। शायद तभी हुआ होगा,जब शाम को सूरज गंगा में डूबता था,और वो रात की तरह हमारे ऊपर छा जाती थी। हिम्मत करके इकत्तीस दिसंबर को नाव पर अंधेरे में उसका हाथ पकड़ा,और एक बच्चे की तरह झिझकते हुए ज़ाहिरा से एक बात कहने की इजाज़त मांगी,मिल भी गयी। हमने बस इतना कहा,कि " ज़ाहिरा,तुझे ज़िन्दगी अपने किसी भाई से शादी करके,बच्चे ही जनने में बितानी है,या मुझसे प्यार कर सकती है तू ?
देख आज तक जितना भी कुछ अच्छा हुआ है मेरे साथ,तुझसे मिलना शायद उनमे सबसे अच्छा है। अगर तू साथ नहीं देना चाहती तो मैं जाकर अपने बाप से कह देती हूं कि करवा दें मेरी शादी उस लड़के से। पर याद रखना ज़ाहिरा,आज तेरी दुर्गा का सिर्फ शरीर ही उसके घर जायेगा,उसका मन हमेशा के लिए यहीं इस गंगा में,पत्थर से बाँध कर फेंक दिया जायेगा। तेरी ही आँखों के सामने।" इस पर वो बोल पड़ी,ज़माना क्या कहेगा इसका अंदाजा भी है तुमको। हमसे रहा न गया। हम बोले जिस ज़माने की खींची हुई लकीरों को तुम अपनी चप्पल सिलने के लिए सूई में डालती हो,उस ज़माने से डरती हो ?
नाव का सफर पूरा हुआ। हमारे इंतज़ार का भी। ज़ाहिरा तैयार थी हमारे साथ हो लेने को। उस दिन से मुश्किलें बहुत हुई,जानते हो। तुम अपनी डायरी में लिख नहीं पाओगे,उतना दर्द दिया गया हम दोनों को। कभी बातों से,तो कभी गरम सरिये से। इस 'बीमारी' का इलाज करने की कोशिशें बहुत हुई। हफ्तों तक भूखा रखा गया,अपने ही रिश्तेदारों से बलात्कार करवाया गया,बीच आँगन में। और ये सब,इस प्यार को ख़त्म करने के लिए। अब ये बताओ अगर यह पागलपन है, तो इसका इलाज थोड़े ही संभव है। और आज उस काशी से इस दिल्ली तक हमारी इस कहानी को लाने के लिए तुम्हारा बहुत बहुत शुक्रिया।
इतना कहकर दुर्गा और ज़ाहिरा ने चाय के कप कूड़ेदान में डाले और हमारे गालों पर एक हलका सा चुम्बन देकर निकल पड़े,इस एल.जी.बी.टी.क्यू. प्राइड परेड कि अगुवाई करने। सर्दियों में सुनाइ गयी इन दो लड़कियों की कहानी ने हमें एक बार फिर अपने इस कैंसर पीड़ित समाज और इसमे बसने वाले अनेक धर्म और संस्कृती के ठेकेदारों से घृणा करने की ओर धकेल दिया। पर दुनिया इन जैसे लोगों और इनके अपने आप में पल रहे शैतान के कारण नहीं,प्रेम के कारण खूबसूरत है। राहुल और पंकज के प्रेम के कारण। दुर्गा और ज़ाहिरा के जज़्बे के कारण।बारिश के बादलों जैसे उमड़ कर छा जाने वाले उस प्रेम के कारण।
आते हैं फिर,कुछ दिन बाद। अपने यादों के पिटारे से बाहर आने को बेताब एक ऐसी ही कहानी अपने साथ लेकर। तब तक,या तो प्यार में पड़ने और उसके इज़हार करने का साहस जुटाइये। या फिर प्यार में,समंदर के पानी में उभरती लहरों की तरह चढ़ते उतरते लोगों को,अपने जैसा बनाने के दुस्साहस का त्याग कीजिये। ख़ुदा हाफ़िज़।