प्रकाश स्तम्भ


       आज जब वर्तमान युवा पीढ़ी ने अपने-आपको मोबाईल-इण्टरनेट की दुनिया में भूला सा लिया है, सामाजिक सरोकार एवं संघर्ष जिनके लिये महज किताबी बातें बनकर रह गई हैं, जो नैतिक मूल्यों का सिर्फ मजा़क बनाना ही जानते हैं। युवा जो रियल लाईफ न जीकर वर्चुअल लाइफ जीना चाहते हैं। वे एक तरह से रियल लाईफ से पलायन ही कर रहे होते हैं। ऐसे में एक युवा द्वारा अपने जीवन में घटने वाली छोटी से छोटी घटनाओं से भी शिक्षा ग्रहण करना,अगम्भीर से अगम्भीर लोगों से भी प्रेरित होना, सामाजिक सरोकारों के प्रति पूर्णतः सचेत रहकर घोर निगेटिव वातावरण में भी पाजिटिविटी की तलाश कर लेना हमें यह आश्वस्त करता है कि हालात उतने भी बुरे नहीं हैं। आज हमें ऐसे ही युवाओं की जरूरत है जो जहाज रूपी समाज को दिशा देकर प्रकाशस्तंभ की भूमिका निभाये।


       आज सुबह मैंने जैसे ही अख़बार खोला, मेरी नज़र राज्य लोक सेवा आयोग के परीक्षा परिणामों पर पङी। अख़बार में सभी पदों पर चयनित लोगों के नाम छपे थे। मेरी नज़र डी एसपी के पदों पर चयनित लोगांे पर पड़ी और घनश्याम कुमार नाम पर जाकर ठहर सी गई। नाम के साथ उसके गांव का नाम भी लिखा हुआ था,जिसे पढ़कर मेरी स्मृतियों के सितार के तार बजने लगे। मैं बीस बरस पीछे पहुंच गया। मेरी नियुक्ति जंगल क्षेत्र के एक गांव में एक छोटे से पद पर हुई थी। मेरे कार्य क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले बीस गांव में एक गांव घनश्याम का भी था मोहनभांठा। हम अपने सारे सरकारी कामों के लिये मुख्य रूप से ग्राम-कोटवार पर ही निर्भर होते थे। ये कोटवार सरकारी योजनाओं की मुनादी करने के साथ ही लाभ लेने वालों की वास्तविक स्थिति से हमें अवगत कराते थे। इसके अलावा ये जन्म-मृत्यु की सूचना देने से लेकर गांव में घटने वाली हर महत्वपूर्ण घटना की सूचना देने के लिये थाने जाया करते थे। सारे सरकारी विभागों की जिम्मेदारी अघोषित रूप से इनके कंधों पर होती थी। ये कोटवार सबसे छोटे स्तर के सरकारी प्रतिनिधि होते थे। उस दौर में इन्हें मात्र 500 रूपये प्रतिमाह मानदेय मिलता था और बेचारे सारे कर्मचारियों की जी-हजूरी करते रहते थे। सारे विभाग के कर्मचारी उस पर रौब गा़लिब किया करते थे।


  वो मेरी युवावस्था का दौर था। ग्रामीण क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण पदों पर हम युवाओं का ही कब्जा था। हम फील्ड वाले सभी युवा प्रायः समूह में ही दौरा किया करते थे। हममे से ज़्यादहतर कर्मचारी शहरी क्षेत्रों से थे। हमारा रहन-सहन ग्रामीणों को बेहद आकर्षित करता था। ग्रामीण बालाएं भी हमसे बातें करने को आतुर रहती थीं। हमारा भी एक मात्र उद्देश्य होता था कि हम अधिक से अधिक ग्रामीण बालाओं का ध्यान अपनी ओर खींचे। हमारे समूह के सदस्यों के बीच में एक अघोषित सा समझौता था कि हम सारे लोग अंगरेजी में ही बातें किया करेंगे। चाहे गलत-सलत ही क्यों न बोलें। हमारा तो मुख्य उददे्श्य तो ज्यादह से ज्यादह लङ़कियों को प्रभावित करना होता था। खैर यह तो हमारी उम्र का तकाजा़ भी था कि खिलदड़पन हमारे व्यवहार में स्वाभाविक रूप से आ गया था और ग्रामीण लड़कियों में भी।


         धीरे-धीरे हमारा ग्रुप उस क्षेत्र में बेहद लोकप्रिय होता जा रहा था। हालांकि हम लोग एकदम अगंभीर किस्म के युवा थे तो भी हम सभी वहां के रचनात्मक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। हम स्कूलों में आयोजित होने वाली खेलकूद प्रतियोगिता के विजेताओं को अपनी तरफ से पुरस्कार देते थे। इसके अलावा बोर्ड परीक्षाओं में सर्वाधिक अंक पाने वाले छात्रों को भी ईनाम देते थे। मेरे कार्यक्षेत्र की एक ग्राम पंचायत मोहनभांठा के कोटवार का कुछ अता-पता नहीं था। गांव के लोग बताते थे कि किसी बाबा के चक्कर में पड़कर वह एक बार जो घर से लापता हुआ तो फिर कभी नहीं आया। स्थानीय व्यवस्था के तहत उसका सारा कार्य उसकी पत्नी फूलकुंवर के जिम्मे आ गया था। उसके दो बच्चे थे एक लड़का और एक लड़की। लड़का तीसरी कक्षा में पढ़ता था जबकि लङ़की दूसरी कक्षा में थी। चूंकि मैं प्रारंभ से ही संवेदनशील रहा, सो मैं फूलकुंवर कोटवारिन का समाना करने से बचता रहा। मुझे उसकी दयनीय परिस्थिति देखकर रोना सा आता था। मैं हालांकि उसकी मद्द करना चाहता था तो भी लोक-लाज के भय से मैं उसकी ज़्यादह मदद नहीं कर पाता था। हालांकि मैं कभी-कभार 100-50 रू. से उसकी मदद कर दिया करता था। मैं उससे कार्य न लेकर, किसी और ग्रामीण से अपना काम करा लेता था। इससे मुझे लगता कि मैं परोक्ष रूप से फूलकुंवर की मदद कर रहा हूं।


        इस बीच समय अपनी रफ्तार से चलता रहा और मुझे एक बङ़ी नौकरी मिल गई जो कि राजधानी के मंत्रालय में थी। अब तक मेरा खिलंदड़पन न जाने कहां गायब हो गया था। गांव के उन साथी कर्मचारियों से कभी-कभार  मोबाईल पर बात हो जाती थी। हम सभी अपने दाम्पत्य जीवन मे रम गये थे। उस ग्रामीण क्षेत्र की सारी घटनाएं स्मृतियों के कोनों में कहीं धूल खाती पड़ी हुई थी।


      एक दिन अचानक मेरे सबसे करीबी साथी सुभाष का फोन आया कि शिक्षकों का राज्य स्तरीय सम्मेलन राजधानी में हो रहा है जिसमें उसकी शिक्षिका पत्नी के अलावा कुछ और लोग भी आ रहे हैं, जो मुझसे मिलना चाहते है। निर्धारित तिथि एवं समय पर मेरी मुलाकात शिक्षकों के उस दल से हुई। सुभाष ने सभी को मेरे बारे में बताकर रखा था सो वे बड़ी ही गर्मजोशी से मिले। उसमें से एक लड़के ने अचानक मुझसे पूछा कि क्या आप मुझे पहचानते हैं? मेरे इनकार करने पर उसने बताया कि वह मोहनभांठा की कोटवारीन फूलकुंवर का लड़का घनश्याम है। उसके ऐसा बताते ही मेरे सामने फूलकुंवर का दयनीय सा चेहरा घूम गया, लेकिन अब मुझे यह जानकर संतोष हुआ कि चलो अब उसका बेटा शिक्षक बन गया है, तो उसके घर की आर्थिक स्थिति सुधर गई होगी। बातचीत के दौरान उसने बताया कि उसने मेरे विभाग में एक अधिकारी पद के लिये परीक्षा दिलाई है। अब मुझे लगा कि वह मुझसे कहेगा कि आप मेरी एप्रोच कर दें। इसके पहले कि वह आगे कुछ कहता, मैंने पहले ही कह दिया कि -घनश्याम मैं इसमें तुम्हारी किसी भी तरह से मदद नहीं कर सकता। मेरे ऐसा कहने पर उसने कहा भैया मैं तो आपको बताना चाह रहा हूं कि इस पद पर मेरा चयन होना तय है। एक सौ पचास नंबर की उस परीक्षा में 125 नंबर से ज्यादह किसी को नहीं मिलेंगे और मुझे 117 नंबर मिल रहे है। ऐसा कहते हुए उसकी आंखो में गज़ब का आत्मविश्वास था। आगे बातों ही बातों में उसने कहा कि भैया मेरे आदर्श तो आप रहे हैं। आप लोग जब भी हमारे गांव में आते थे और धाराप्रवाह अंग्रेज़ी में बातें किया करते थे तो हम सभी बच्चे आप लोगों को घेरकर खडे़ हो जाया करते थे और आप लोगों की बातों को ध्यान से सुना करते थे। उस समय आप ही सबसे ज्यादह आत्मविश्वास के साथ अंग्रेज़ी बोला करते थे, इसलिये आपकी छवि मेरे दिमाग़ में अंकित हो गई थी।
     मुझे उससे बातें करते हुए बङ़ा अच्छा लगने लगा। एक सुखद आश्चर्य भी हुआ कि उस दौर में, जब हम कतई गंभीर नहीं थे, हमें भी आदर्श माना जा सकता था। यह एक सुकून देने वाली ख़बर थी। खै़र आगे बातचीत में पता चला कि वह स्कूली पढ़ाई-लिखाई में एकदम औसत छात्र रहा है। मोबाईल नंबर के आदान-प्रदान के बाद वे सब विदा हो गये। मेरे जेहन में उस क्षेत्र की ऐसी छवि बन गई थी कि मुझे लगा कि यह लङ़का अति-आत्मविश्वासी है और ज्यादह कुछ नहीं कर पायेगा। कुछ दिन गुजर गये। इस बीच उसका दो-तीन बार फोन आया,लेकिन मैं उसके साथ औपचारिक ही रहा। घनश्याम में ऐसी कोई बात तो थी जो मुझे उसके बारे में ज्यादह से ज्यादह जानने के लिये पे्ररित करती थी। मैंने सुभाष से उसके बारे में पूछा तो उसने घनश्याम के जीवन की संघर्ष गाथा बयां की और मेरे मन में उसके प्रति अगाध सम्मान भर गया। घनश्याम की ज़िन्दगी की किताब के पन्ने-दर-पन्ने खुलते चले गये। मुझे पता चला कि उसने बचपन से ही अपनी मां के काम की सारी जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली थी। पांचवी कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते वह बेहद समझदार हो चुका था। वह मुनादी करने से लेकर अपनी मां को पच्चीस किलोमीटर दूर थाने तक सायकल में बिठाकर लाने ले जाने का काम भी किया करता था। अपने काम के चक्कर में वह स्कूल जाने को तरस सा जाता था। थोङा और बङ़ा होने पर वह कभी ढाबे में प्लेटे धोने का काम किया करता,कभी किसी ट्रक में क्लीनर का काम करते हुए खुद को नीट एण्ङ क्लीन बनाये रखना उसकी उपलब्धियां थी। जीवन संघर्ष में तपक रवह कुंदन बन रहा था। खैर उसने अपनी स्कूली शिक्षा जैसे -तैसे पूरी की और हायर सेकण्ङरी करने के तुरंत बाद सरकारी कामों में वह मेट की हैसियत से काम करने लगा साथ ही काॅलेज की पढ़ाई प्रायवेट छात्र की हैसियत से जारी रखा लेकिन उसने अपने अंदर प्रतिस्पर्धा की भावना को हमेशा ही जीवित रखा। वह अपने जीवने में घटने वाली छोटी-छोटी घटनाओं से बङे़-बङ़े सबक लेता रहा। उसका व्यावहारिक पक्ष बहुत मजबूत था। उसे यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई थी कि अकादमिक परीक्षाओं में औसत छात्र भी बड़े से बड़े पदों पर प्रतियोगिता के जरिये पहुंच सकते हैं। उसने अपने अंदर यह आग हमेशा ही जलाये रखी।
अब मैं सुभाष से जब भी मोबाईल पर बात करता, तो सि़र्फ ओर सिर्फ घनश्याम के बारे में ही पूछता। इस बीच सुभाष ने मुझे घनश्याम के व्यक्तित्व के एक अलग ही पहलू से परिचित कराया। उसने बताया कि वह जिस गांव में शिक्षक है, वहां पर वह स्कूली बच्चों को प्रारंभ से ही प्रतियोगी परीक्षाओं से परिचित कराता है। वह उनके अन्दर प्रतिस्पर्धा का जोश भरने के लिये साल में दो बार परीक्षाएं आयोजित करता है। धीरे-धीरे आस-पास की बीस-पच्चीस  स्कूलों में वह इस तरह के आयोजन कराकर वहां के बच्चों को भविष्य के लिये तैयार कर रहा है। वह इन प्रतियोगी परीक्षाओं में सर्वाधिक अंक पाने वाले बच्चों को पुरस्कृत भी करता है। इन तमाम व्यवस्थाओं का खर्च वह खुद ही उठाता है। 
   इस बीच मेरे विभाग के अधिकारी पद के नतीजे़ आ गये थे। सर्वाधिक नंबर पाने वाले उम्मीदवार को 120 नंबर मिले थे, जबकि घनश्याम को उसके अनुमान के मुताबिक 116 नंबर मिले थे। उसका अनुमान लगभग सटीक ही था। अब मैं घनश्याम से लगातार सम्पर्क बनाये रखा था। उससे बातें करना मुझे बहुत ही अच्छा लगता। वह बेहद संतुलित और वजनदार बातें ही करता था। इस बीच उसने दो-तीन प्रतियोगी परीक्षाएं और दिलाई थी। और सभी के पूर्वानुमान से मुझे पहले ही अवगत कराकर बताता रहा कि मेरा सभी में चयन तय है। वह एक तरह से मिस्टर परफेक्शनिस्ट सा हो गया था। उसने राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा भी दिलाई। मुख्य परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद एक बार वह मेरे घर पर आया। बातों ही बातों मे उसने मुझे बताया कि भैया मेरा डी एसपी के पद पर चयन तय है। मुझे फिर आश्चर्य हुआ कि अभी तो साक्षात्कार भी नहीं हुए है और इतने आत्मविश्वास से यह कैसे कह रहा है। लेकिन अब तक के उसके सारे अनुमान लगभग ठीक ही निकले थे सो मेरे पास कहने लायक कुछ बचा नहीं था। आगे मैंने उसका उत्साह बढा़ते हुए कहा कि चयन के बाद तुम्हें प्रशासनिक अकादमी भेजा जायेगा,जहां पर तुम्हें सूर्यवंशी सर प्रशिक्षण देंगे। वे हमारे बहुत अच्छे मित्र है। सूर्यवंशी सर का नाम सुनकर उसकी आंखों में चमक सी आ गई और फिर उसने पूछा कि कहीं उनका नाम आनंद सूर्यवंशी तो नहीं है? मेरे हां कहने पर उसके चेहरे पर प्रसन्नता नाच उठी और फिर उसने बच्चों की भांति ज़िद करते हुए कहा कि मुझे सूर्यवंशी सर से मिलना है। आप प्लीज़ मुझे उनसे मिलवा दीजिये। मैंने हैरत से उससे पूछा कि तुम सूर्यवंशी सर को कैसे जानते हो इस पर उसने बताया कि बारहवीं पास होने के बाद मैंने एक सरकारी प्रशिक्षण कार्यक्रम में प्रशिक्षण प्राप्त किया था उसमें इन सूर्यवंशी सर ने ही हमें प्रशिक्षण दिया था। प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने हमें नैतिक मूल्यों पर आधारित एक कहानी भी सुनाई थी। यह कहकर वह मुझे अक्षरशः वही कहानी सुनाने लगा। कहानी सुनते-सुनते मुझे घनश्याम के व्यक्तित्व की गहराईयों में उतरने का मौका मिला। मैंने देखा कि वह कहानी सुनाते-सुनाते अपने पिछले दौर में पहुंच गया है। इधर मैं सोचने लगा कि सौ-दो सौ लड़कों के प्रशिक्षण के दौरान एक  प्रशिक्षक  का नाम याद रखना और उनकी सुनाई गई कहानी से नैतिक शिक्षा ग्रहण करना, आज के दौर में दुर्लभ है। मैंने उत्कण्ठावश पूछ ही लिया कि इतने वर्षों बाद भी तुम्हें सूर्यवंशी सर कैसे याद रह गये? तो उसने बताया कि प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने कुछ प्रश्न पूछे थे जिसका मैंने सही-सही उत्तर दिया था। प्रशिक्षण पूरा होने पर उन्होंने मुझे अपने गले लगाकर कहा था कि तुम लोक सेवा आयोग परीक्षा की तैयारी जरूर करना। उस वक़्त तक मैं इस परीक्षा के बारे में जानता भी नहीं था, लेकिन उनके द्वारा मुझे अपने गले लगाना जादू की झप्पी की तरह काम कर गया और मैंने ठान लिया कि मुझे इस परीक्षा की तैयारी करनी ही है फिर मैंने इस परीक्षा के बारे में सारी बातें पता की, और परीक्षा की पूरी तैयारी भी की और मैं आत्म विश्वास से कह रहा हूं कि मेरा डी एसपी बनना तय है।


     अब मैं घनश्याम की प्रतिभा का पूरी तरह कायल हो गया था। मुझे लगने लगा कि आज यह एक लड़का न होकर कोई प्रकाशस्तंभ है, जो अपने व्यक्तित्व के प्रकाश से न सिर्फ स्वयं आलोकित है बल्कि समाज में उम्मीद की रोशनी बिखेर रहा है।


तारीख: 27.07.2019                                    आलोक कुमार सातपुते




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