तुम स्त्री हो ।
बंधक है तुम्हारी हर एक सांस
मोल चुकाओगी तुम हरपल
तुम्हारी हर एक सांस का..
तुम्हें सहना होगा हर विरोध को..
क्योंकि बंदिनी हो तुम समाज की
कभी पिता की आज्ञा की..
कभी भाई के बड़प्पन की..
और कभी पति के एकाधिकार की..
नही हो सकती तुम स्वतंत्र
क्योंकि अस्तित्व विहीन हो तुम ..
तुम्हारा जीवन सबके लिए
एक साधन मात्र है।
तुम्हारे खुद के लिए
नही मिला है तुम्हें ये जीवन..
तुम गाथा हो संघर्ष की..
तुम वस्तु हो दान की..
तुम्हारा एकमात्र दान
मुक्ति है माता पिता की..
ससुराल में तुम एक
सर्व साधन और क्षमतायुक्त
आधुनिक संयन्त्र हो।
स्त्री क्या तुम पाप हो ?
क्यों नही कभी कोई
तुमसे ये पूछता
की तुम क्या चाहती हो ?
हर बार वो ही क्यों
जो सब चाहते है ?
आखिर तुम्हारा अपराध क्या है ?
क्या तुम सच में एक पाप हो ???