रोज़ाना उसी चौराहे पर मिलती है
वह औरत
सांवला सा रंग, बाल छोटे पर बिखरे हुए
कुर्ता-सलवार बेमेल
फिर भी साफ़ सुथरे
घर नहीं है उसका
रहती है एक बस स्टैंड पर
बेगानों की तरह
महीनों से देख रही हूं उसे
इसी तरह रोजाना
कभी भी कुछ बडबडाते नहीं सुना
अक्सर पाया है उसे सफाई करते हुए
तरतीब से रखी हुए मैली सी बोतल
जिसमें साफ़ पानी था
कुछ पन्नियाँ जिनमें कुछ
खाने को बंधा था
करीने रखा हर सामान
जैसे वही उसका ताजमहल था
अक्सर कुछ आते जाते लोग
फब्तियां कस्ते
कुछ दया पाकर उसे पैसे भी देते
भीषण गर्मी हो या कड़ाके की सर्दी या यो बरसात
मैंने उसे वहीं पाया उसी जगह सुकड़े हुए
मन में हजारों सवाल उठे
कौन होगी कहाँ से आई होगी
कौन छोड़ गया होगा इसे
कहाँ होगा इसका असली घर
सवालों के इस गुबार में दिखाई दी
एक स्पष्ट छवि
समाज की, इस व्यवस्था की
और सवाल टिका इस समाज के लोगों पर ....