ऐ, दिवास्वप्न में रहने वालों,
बंद पड़ी अँखियों को खोलो,
बह रहा है ख़ून धरा पर,
अब अपनी चिरनिद्रा खोलो।
देखो चहुँओर घनेरी छायी,
कुछ अपनी, कुछ है परायी,
काँप रहा धरती का अब मन,
देख के हिंसा और दमन।
चुप्पी ये अब सही ना जाती,
बेबसी ये अब दिल दुखाती,
अब इन आँखों में तुम,
कोई नया सपना सजाओ।
बहुत हो गया रोना धोना,
अब इन आँसुओं की क़ीमत चुकाओ,
ज़िम्मेदार हो तो अब कुछ बोलो,
निंदा करने की रट छोड़ो।
हो जाओ अब तुम तैयार,
करने को दोषियों पे पलटवार,
डर का दामन अब दूर हटाओ,
छप्पन इंच का सीना दिखलाओ,
चाहे फिर वो अंदर हो,
या फिर हो बाहर वाला,
अपनी ताक़त से उसकी,
तुम अब पहचान कराओ।।