कीड़े-मकोड़े

यह कविता मैं लिखता हूँ, एक याद के ऊपर. 
कभी किसी अनुभवी व्यक्ति ने, मेरे हित में, मुझसे कहा था-

“जानते हो कैसे मरा था प्रेमचंद?”
मैंने कहा- “नहीं... पता नहीं... गरीबी?”
“भूख... भूख से...”
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कीड़े-मकोड़े, कीट-पतंगों की टोली के,
जो सबसे जिज्ञासु पतंगे  हैं वह,
मर जाते जल-भुन कर,
मेरे लैंप के ज्वाला में । 

बाकि,
जो आते नहीं पास,
गैर जिज्ञासु, डरपोक...
रह जाते, कहानियाँ सुनाते,
मेरे लैंप के ज्वाला की...

नज़रों से परे, 
काफी दबा हुआ,
तैयार, इन्तेजार में,
व्यक्त होने को उत्सुक
अगली पीढ़ी में,
बसता है उन डरपोकों में,
वो जेनेटिक कोड,
जो जन्म देता जिज्ञासा को ।

जिज्ञासा मार देती है जिज्ञासु ।
पर प्रश्न छोड़ जाती है अनेक,
क्यूँ जिन्दा है अब तक?
आखिर मरती क्यों नहीं खुद ?
क्यूँ बच जाती है हर बार,
हर एक बार...
वह मेरे लैंप के ज्वाला से ?


तारीख: 15.06.2017                                    अर्गोज़ ‘मोजा’




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